SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १११ द्वितीयसमयं मोदल्गोंडु चरम समय पथ्यंतमेकायेकोत्तरचयवृद्धिक्रमदिदं चयंगच्चिदवप्पुदरिदं चरमसमयदोळ रूपोनगच्छमात्रचयंगळ्पदिनैदप्पुवदरद्धं चयंगळेळवरियक्कुवदक्के त्रिराशिकमिदु वों दक्क १ नाल्कुरूपगवागलु ४ पदिनैदरद्ध १५ क्कनितु रूपुगळेदु चर्याद गुणियिसुत्तिरलु ३० क्कुमिदं समपट्टिका = रूपदि समीकरणनिमित्तं गुणोगच्छमें दो त्रैराशिकमं प्र ११ प ३० । इ १६ मनोलिटु गुणिसल्पेन्दरप्पुरिदं पदिनारु मूवत्तप्युवदंतेने चरमसमयदेळुवरे चयंगळं प्रथम- ५ समयस्थानकदोळ रचियिसुवदु तदधस्तनावरे चयंगळं तंदु द्वितीयसमयस्थानको रचियिसुवुदंतु रचियिसुत्तिरलु मुंनिनोंदु चर्यमुमीगळिनारुवरे चयमं कूडियेळवर चयंगळक्कु। तदधस्तन अदुवरे चयंगळं तंदु तृतीयसमयस्थानदोळु मुंनिनरडु सहितमेळुवरे चयंगळक्कुमितुपरितन चतुदिसमयगत नाल्कुवरे चयंगळमोदलाद चयंगळं तंदु चतुर्थादिसमयस्थानंगळोळु रचियिसुत्तिरल पदिनारडयोळं समपट्टिकारूपदिंद मेळुवरयेळुवर चयंगळप्युदो कारणमागि । १० इंता त्रैराशिकदिदं बंदर्लब्धि मुंपेळ्दुत्तरधनमक्कुम दितनूकृष्टियोळमकसंदृष्टियिदं पेन्दुको डु बळिवकर्थसंदृष्टियोळमव्यामोहदिदं तरल्पडुवुदु। ___ इंतु प्रमत्तगुणस्थानव्याख्यानानंतरमपूर्वकरणगुणस्थानस्वरूपप्रतिपादनार्थमागि मुंदणगाथासूत्रमं पेळ्दपरु। अत्रतत्त्रैराशिकलब्धं प्रागुक्तमुत्तरधनं भवति तथानुकृष्टावप्यसंदृष्टया प्ररूप्य अर्थसंदृष्टावव्यामोहेना- १५ नयेत् ।।४९।। एवमप्रमत्तगुणस्थानं व्याख्याय अनन्तरमपूर्वकरणगुणस्थानमाह विशेषार्थ-यह अंक संदृष्टि 'व्येक पद' इत्यादि करण सूत्रकी वासना सूचित करनेके लिए है कि क्यों पदमें से एक हीन किया और उसका आधा किया। प्रत्येक समयमें एक सौ बासठ परिणाम तो होते ही हैं , उनमें आगे आगे चार-चारकी वृद्धि होती है। पहलेमें वृद्धि होती नहीं है। दूसरे समयमें एक चय बढ़ता है, तीसरेमें दो चय' बढ़ते हैं। इस तरह २० एक-एक चय बढ़ते-बढ़ते सोलहवेमें पन्द्रह चय की वृद्धि होती है। इस तरह प्रत्येक स्थानमें औसतन साढ़े सात चयकी वृद्धि होती है। यही औसत लानेके लिए ऊपरके जिन स्थानों में साढ़े सात चयसे जितने अधिक चयोंकी वृद्धि हुई है,उन्हें वहाँसे कम करके नीचेके स्थानोंमें दे देनेसे सर्वत्र साढ़े सात चय हो जाता है। जैसे अन्तके सोलहवें स्थानमें पन्द्रह चयोंकी वृद्धि होती है। अतः उनमें से साढ़े सात चय उठाकर प्रथम समयके आगे रखना चाहिए, " २५ क्योंकि प्रथम समयमें चयकी वृद्धि नहीं होती। पन्द्रहवें स्थानमें चौदह चयकी वृद्धि होती है, अतः उनमें से साढ़े सात चय छोड़कर शेष साढ़े छह चय नीचे दूसरे स्थानके आगे रखना चाहिए। उसमें एक चयकी वृद्धि पहले होनेसे चयोंकी संख्या साढ़े सात हो जाती है। इस तरह जब एक स्थानमें साढ़े सात चय तो सोलह स्थानोंमें कितने चय, इस प्रकार त्रैराशिक करने पर लब्धराशि ४८० सो पूर्वोक्त उत्तर धन है । इसी तरह अनुकृष्टिमें भी ३० अंकसंदृष्टिके द्वारा कथन करके अर्थसंदृष्टि में भी यथार्थ रूपसे लाना चाहिए ॥४९॥ १. म पदिनदेयप्पुववरर्द्धचयगलेलु वरेयक्कुमदक्के । २. म यममी । ३. मप्पदे । ४. म लब्धमुपेल्वृत्त । ५. मल्दुव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy