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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका निद्राप्रचलातीव्रोददिंदमं समुद्भूतमप्पदं जोवक्क स्वार्थसामान्यग्रहणप्रतिबंधियप्प जाड्यावेस्थितियं निद्रय बुदु। बाह्यार्थगळोळ्ममत्वरूपमं प्रणयमें बुदु । इव॒ यथासंख्यमागि नाल्डं नाल्कुमैदुमेकमुमेकम दितिवेल्लं कूडि प्रमादंगळु पदिनैदप्पुवु । इल्लि प्रथमोद्दिष्ट तथाशब्दमल्ला प्रमादसाधारण्यज्ञापनार्थ द्वितीयतथाशब्दं समुच्चयार्थमक्कुं॥ अनंतरमी प्रमादंगळगी प्रकारदिदं संख्यादिपञ्चप्रत्ययप्ररूपणार्थमिदं पेळ्दपरु । संखा तह पत्थारो परियट्टण णट्ठ तह समुद्दिढ़ । एदे पंच पयारा पमद समुक्कित्तणे णेया ॥३५॥ संख्या तथा प्रस्तारः परिवर्तन नष्टं तथा समुद्दिष्टं एते पञ्च प्रकाराः प्रमाद समुत्कीर्तने ज्ञेयाः॥ प्रमादालापोत्पत्तिनिमित्ताक्षसंचारहेतुविशेषम संख्येयबुदु। अवर न्यासमं प्रस्तारमेंबुदु । १० अक्षसंचारमं परिवर्तनमेंबुदु । संख्यां धृत्वाऽक्षानयनं नष्ट में विदं नष्टमेमेंबुदु । अक्षं धृत्वा संख्यानयनं समुद्दिष्ट में दिदं समुद्दिष्ट मेंबुदु । ई पंचप्रकारंगळ प्रमादसमुत्कीर्तनदोळु ज्ञेयंगळक्कु॥ नि १ स्प. र. घ्रा. च. श्रो. ५ क्रो. मा. माया. लो. ४ स्त्री. भ. रा. अ.४ प्रतिबन्धिका जाड्यावस्था निद्रा । बाह्यार्थेषु ममत्वरूपः प्रणयः, एते यथासंख्यं चतस्रः, चत्वारः, पञ्च, एका, एकः सर्वे मिलित्वा प्रमादाः पञ्चदश भवन्ति । अथ प्रथमोद्दिष्टस्तथाशब्दः सर्वप्रमादसाधारण्यज्ञापनार्थः, द्वितीयस्तथाशब्द: समुच्चयार्थः ॥३४॥ अथैषां प्रमादानां प्रकारान्तरेण संख्यादिपञ्चप्रत्ययान् ( गाथानवकेन) २० प्ररूपयति प्रमादालापोत्पत्तिनिमित्ताक्षसंचारहेतुविशेष: संख्या, एषां न्यासः प्रस्तारः, अक्षसंचारः परिवर्तनं, संख्यां धृत्वा अक्षानयनं नष्टं, अक्षं धृत्वा संख्यानयनं समुद्दिष्टं । एते पञ्चप्रकाराः प्रमादसमुत्कीर्तने ज्ञेया इन्द्रियाँ हैं । स्त्यानगृद्धि आदि तीन कर्मोंके उदयसे निद्रा होती है। अथवा प्रचलाके तीव्र उदयसे उत्पन्न जीवकी स्व और अर्थके सामान्य ग्रहणको रोकनेवाली जड़तारूप अवस्थाको २५ निद्रा कहते हैं। बाह्य पदार्थोंमें ममत्वरूप भाव प्रणय है। ये क्रमसे विकथा चार, कषाय चार, इन्द्रियाँ पाँच, निद्रा एक, स्नेह एक सब मिलकर प्रमाद पन्द्रह होते हैं । गाथामें आया पहला 'तथा' शब्द 'ये सब प्रमाद हैं',ऐसा साधारण ज्ञान करानेके लिए है और दूसरा 'तथा' शब्द समुच्चयके लिए है ॥३४॥ आगे इन प्रमादोंके प्रकारान्तरसे संख्या आदि पाँच प्रत्ययोंको नौ गाथाओंसे कहते हैं- ३० प्रमादके आलापकी उत्पत्तिमें निमित्त अक्षसंचारके विशेष हेतुको संख्या कहते हैं। इनके स्थापनका नाम प्रस्तार है। अक्षसंचारका नाम परिवर्तन है। संख्या रखकर अक्ष लाना नष्ट है । अक्ष रखकर संख्या निकालना उद्दिष्ट है। इस तरह संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट तथा उद्दिष्ट ये पाँच प्रकार प्रमादके व्याख्यानमें जानना चाहिए ।।३५।। २. म वस्थेयं । ३. म इवे । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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