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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णो इंदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो॥२९॥ नो इंद्रियेषु विरतो नो जीवे स्थावरे असे वापि । यः श्रद्दधाति जिनोक्तं सम्यग्दृष्टिरसंयतः सः॥ ___ आवनोनिद्रियविषयंगळोळ विरतिरहितनं । स्थावरत्रसजीववधेयोल मेणु विरतिरहितनं। ५ जिनोक्तमं नंबुगुमातनविरतसम्यग्दृष्टियक्कुमिदरिंदमसंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च एंदितु समानाधिकरणत्वं सथितमायतु । अपि शब्ददिदं संवेगादिसम्यक्त्वगुणंगळसूचिसल्पद्रुवु । अत्रेत्यमप्पविरतत्वविशेषण मन्त्यदोपकमप्पुरिद अधस्तनगुणस्थानंगळनितरोळं संबंधिसल्पडुगुं। अपिशब्दविंदमनुकंपेयुमुंदु ।। अनंतरं देशसंयतगुणस्थाननिर्देशार्थमी गाथाद्वयमं पेदपरु । १० पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरिं तु । थोववदो होदि तदो देसवदो होदि पंचमओ ॥३०॥ प्रत्याख्यानोदयात्संयमभावो न भवति । विशेषोऽस्ति तु। स्तोकवतं भवति ततो देशवतो भवति पञ्चमकः॥ यः इन्द्रियविषयेषु नो विरतः विरतिरहितः, तथा स्थावरत्रसजीववधेऽपि नो विरतः, जिनोक्तं प्रवचनं १५ श्रद्दधाति स जीवः अविरतसम्यग्दष्टिर्भवति । अनेन असंयतश्चासौ सम्यग्दष्टिश्चेति समानाधिकरणत्वं समथितं जातम् । अपिशब्देन संवेगादिसम्यक्त्वगुणाः सूच्यन्ते। अत्रत्यं अविरतत्वविशेषणं अन्त्यदीपकत्वादधस्तनगुणस्थानेष्वपि संबन्धनीयं अपिशब्देन अनुकम्पापि स्यात् ॥२९॥ अथ देशसंयतगुणस्थानं गाथाद्वयेन निर्दिशति अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकोपशमात् प्रत्याख्यानावरणकषायाणां देशघातिस्पर्धकोदये जाते सर्वघातिस्पर्धकोदयाभावलक्षणक्षयेन सकलसंयमभावो न भवति । ( णवरि ) विशेषोऽस्ति तु पुनः ( स एव २० आगे असंयतत्व और सम्यग्दृष्टित्वका सामानाधिकरण्य-अर्थात् दोनोंका एक ही व्यक्तिमें एक साथ होना दिखलाते हैं जो इन्द्रियोंके विषयोंमें 'नोविरत' अर्थात् विरतिरहित है, तथा स्थावर और त्रस जीवकी हिंसामें भी नोविरत अर्थात् त्रस-स्थावर जीवकी हिंसाका त्यागी नहीं है, केवल जिन भगवानके द्वारा कहे हए प्रवचनका श्रदान करता है, वह जीव अविरत सम्यग्दृष्टि २५ होता है । इससे जो असंयत है,वही सम्यग्दृष्टि है इस प्रकार सामानाधिकरण्यका समर्थन किया है । 'अपि' शब्दसे संवेग आदि सम्यक्त्वके गुणोंको सूचित किया है। उससे अनुकम्पा भी सूचित होती है । यहाँ जो अविरत विशेषण है, वह अन्त्यदीपक होनेसे नीचेके गुणस्थानोंमें भी लगाना चाहिए । यहाँ तक सब अविरत होते हैं ॥२९॥ आगे दो गाथाओंसे देशसंयत गुणस्थानको कहते हैं अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरणरूप आठ कषायोंके उपशमसे, और प्रत्याख्यानावरण कषायोंके देशघाती स्पधकोंके उदय होते हुए सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावरूप क्षयसे सकल संयमरूप भाव नहीं होता। किन्तु इतना विशेष है कि स्तोकवतरूप देशसंयम होता है अर्थात् प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमें सकल चारित्ररूप परिणाम नहीं १. मनोवं इंद्रि । २. म अप्रत्यमप्प अवि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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