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गो० जीवकाण्डे
इंतु कुमतिज्ञानबलाधानद कुश्रुत विकल्पंगळप्पवु मिवक्केल्लं मूलकारणं मिथ्यात्व कर्मोदयमे यक्कुमेंदु निश्चयिसुगे ॥
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आद्यसम्यक्त्वाद्धासमयात् षडावलिपय्र्यंतं वा शेषे । अनंतानुबंध्यन्यतरोवयान्नाशित सम्यक्त्व इति सासादनाख्योऽसौ । प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालदोलु जघन्यदिदमोंदु समयमुत्कर्षदिदमावलिकाषट्कमवशिष्टमागुत्तिरेलं अनंतानुबंधिकषाय चतुष्कदोळगन्यतरमप्प कषायककुदय१० मागुत्तिरला आवनोवं विनाशितसम्यक्त्वनवकुं आतं सासादननेंदितु पेळपट्टी न् । वा शब्ददिदं द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकाल दोळं सासादनगुणस्थानप्राप्तियप्पु दितिंतु कषायप्राभृताभिप्रायमत्रकुं ॥
तदनंतर सासादनगुणस्थानस्वरूपमं पेळलेंदी सूत्रेद्विकं बंदुदु । आदिमसम्मत्तद्धासमय दो छावलित्ति वा सेसे ।
अणअण्णदरुदयादो णासियसम्मो त्ति सासणक्खो सो ॥ १९ ॥
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हैं। वायु जातिके परमाणुओं में केवल एक स्पर्श गुण होता है । तथा पृथ्वी जाति के परमाणुओंसे पृथ्वी ही बनती है, जलजातिके परमाणुओंसे जल ही बनता है । इस तरह वे परमाणु समानजातीय कार्यों को ही उत्पन्न करते हैं। दूसरा भेदाभेदविपर्यास इस प्रकार है-कारणसे कार्य भिन्न ही या अभिन्न ही होता है, ऐसी कल्पना भेदाभेदविपर्यास है । स्वरूप विपर्यास इस प्रकार है-रूप आदि निर्विकल्प हैं अथवा नहीं हैं अथवा उनके आकार रूपसे परि
त ज्ञान ही है, उसका आलम्बन बाह्य वस्तु नहीं है । इस प्रकार कुमतिज्ञानके साहाय्य से कुश्रुतज्ञान के विकल्प होते हैं । इन सत्रका मूल कारण मिध्यात्व कर्मका उदय ही है, ऐसा निश्चय करना चाहिए || १८ ||
प्रथमोपशमसम्यक्त्वकाले जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन आवलिषट्के च अवशिष्टे सति अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्के अन्यतमकषायस्योदये जाते यो विनाशितसम्यक्त्वो जायते स सासादन इत्युच्यते । वाशब्देन द्वितीयोपशमसम्यक्त्व कालेऽपि सासादनगुणस्थान प्राप्तिर्भवति इति कषायप्राभृताभिप्रायो भवति ॥ १९॥
आगे दो गाथाओंसे सासादन गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं
प्रथमोपशम सम्यक्त्वके काल में जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे छह आवली शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभमें से किसी एक कषायका उदय होनेपर जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है, वह सासादन कहा जाता है । 'वा' शब्द से द्वितीय उपशमसम्यक्त्व के कालमें भी सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति होती है, ऐसा कषाय प्राभृतका अभिप्राय है ॥१९॥
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१. म सूत्रं । २. तरलनंता । ३.
४. पट्टे । ५.
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६. मन्दप्रबोधिनी टीकामें सासादन गुणस्थानके सम्बन्धमें कुछ विशेष चर्चा है, उसे यहाँ दिया जाता है३० 'अनन्तानुबन्धी कषायोंके चारित्रमोहका भेद होते हुए भी सम्यक्त्व और चारित्रको घातनेका स्वभाव है और स्वभाव में कोई तर्क नहीं किया जा सकता । शंका - जब सासादन अनन्तानुबन्धीके उदयसे होता है, तो वह पारिणामिक कैसे हुआ ? समाधान - विवक्षित दर्शनमोहके उदयका अभाव होनेसे । अनन्तानुबन्धो दर्शनमोहमें नहीं है, उसका पाठ चारित्रमोहमें है । शंका - जब अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनकी घातक है, तो वह दर्शनमोह में क्यों नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि चारित्रके घातक तीव्रतम अनुभागकी महिमासे उसका ३५ चारित्रमोहपना ही उचित है। विनाश कैसे होता है ? समाधान - अनन्तानु
शंका-तब उससे सम्यक्त्वका
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