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________________ ४२६ तत्त्वार्यवार्तिक [अ७२ भिल हैं तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो सकता जिससे एक शब्दसे कथन हो सके। कोई एक शब्द या पद दो गुणोंको युगपत् नहीं कह सकता । यदि कहे तो 'सत्' शब्द सत्त्वकी तरह असत्त्वका भी कथन करेगा तथा 'असत्' शब्द सत्त्वका। पर ऐसी लोक-प्रतीति नहीं है क्योंकि प्रत्येकके वाचक शब्द जुदा-जुदा हैं । इस तरह कालादिकी दृष्टिसे युगपद्भावकी सम्भावना नहीं है तथा उभयवाची कोई एक शब्द है नहीं अतः वस्तु अवक्तव्य है । अथवा, शब्दमें वस्तुके तुल्य बलवाले दो धर्मोंका मुख्य रूपसे युगपत् कथन करनेकी शक्यता न होनेसे, या परस्पर शब्द प्रतिबन्ध होनेसे निर्गुणत्वका प्रसंग होनेसे तथा विवक्षित उभय धर्मोका प्रतिपादन न होनेसे वस्तु अवक्तव्य है। यह भी सकलादेश है, क्योंकि परस्पर अवधारित दो मुख्य गुणोंसे अखण्ड वस्तुको समस्त रूपसे कहनेकी इच्छा है। यह अखंडता एक गुण रूपसे अभेद वृत्तिके द्वारा या अभेदोपचारसे बन जाती है। यह अवक्तव्य शब्दके द्वारा अन्य छह भंगोंके द्वारा वक्तव्य होनेसे 'स्यात्' अवक्तव्य है सर्वथा नहीं। यदि सर्वथा अवक्तव्य हो जाय तो 'अवक्तव्य' शब्दके द्वारा भी उसका कथन नहीं हो सकता। ऐसी दशामें बन्ध मोक्षादिकी प्रक्रियाका निरूपण निरर्थक हो जाता है। जब दोनों धर्मोकी क्रमशः मुख्य रूपसे विवक्षा होती है तब उनके द्वारा समस्त वस्तुका ग्रहण होनेसे चौथा भी भंग सकलादेशी होता है। यह भी 'कथञ्चित्' ही समझना चाहिए। यदि सर्वथा उभयात्मक हो तो परस्पर विरोध दोष तथा उभय दोषका प्रसंग होता है। इनका निरूपण इस प्रकार होता है १-सर्वसामान्य और तदभावसे । पदार्थ दो प्रकारके हैं एक श्रुतिगम्य और दूसरे अर्थाधिगम्य। श्रुतिमात्रसे बोधित श्रुतिगम्य है तथा अर्थ प्रकरण अभिप्राय आदिसे कल्पित अर्थाधिगम्य है। 'आत्मा अस्ति' यहाँ सभी प्रकारके अवान्तर भेदोंकी विवक्षा न रहने पर सर्वविशेषव्यापी सन्मात्रकी दृष्टिसे उसमें 'अस्ति' व्यवहार होता है और उसके प्रतिपक्षी अभाव सामान्यसे 'नास्ति' व्यवहार होता है । जब इन्हीं दृष्टियोंसे ये दोनों धर्म युगपत् विवक्षित होते हैं तो वस्तु अवक्तव्य और क्रमश: विवक्षित होनेपर उभयात्मक है। २--विशिष्ट सामान्य और तदभावसे । आत्मा आत्मस्व रूप विशिष्ट सामान्यकी दृष्टिसे 'अस्ति' है और अनात्मत्वकी दृष्टिसे 'नास्ति' है। युगपत् उभय विवक्षामें अवक्तव्य तथा क्रमशः उभय विवक्षामें उभयात्मक है। ३-विशिष्ट सामान्य और तदभाव सामान्यसे । आत्मा 'आत्मत्व' रूपसे 'अस्ति' है तथा पृथिवी जल घट पट आदि सब प्रकारसे अभाव सामान्य रूपसे 'नास्ति' है। युगपत् उभय विवक्षामें अवक्तव्य और क्रम विवक्षामें उभयात्मक है। ४-विशिष्ट सामान्य और तद्विशेषसे । आत्मा 'आत्मत्व' रूपसे 'अस्ति है और आत्मविशेष 'मनुष्य' रूपसे 'नास्ति' है । युगपत् विवक्षामें अवक्तव्य और क्रमविवक्षामें उभयात्मक है। ५-सामान्य और विशिष्ट सामान्यसे । सामान्य दृष्टिसे द्रव्यत्व रूपसे आत्मा 'अस्ति' है और विशिष्ट सामान्यके अभाव रूप अनात्मत्वसे 'नास्ति' है। युगपत् उभय विवक्षामें अवक्तव्य और क्रम विवक्षामें उभयात्मक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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