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________________ ४४२] हिन्दी-सार ४२५ उसी तरह अन्य पुद्गलादिसे भी भिन्न होगा, तात्पर्य यह कि सर्वथा निराश्रय होनेसे उसका अभाव ही हो जायगा। किंच, अस्तित्वसे भिन्न स्वभाववाले जीवका फिर क्या स्वरूप रह जाता है ? जिसे भी आप स्वभाव कहोगे वह सब असद्रप ही होगा। उत्तर-'अस्ति' शब्दके वाच्य अर्थसे जीव शब्दका वाच्य अर्थ कथंचित् भिन्न रूप है तथा कथंचित् अभिन्न रूप । पर्यायाथिक नयसे भवन और जीवन पर्यायोंमें भेद होनेसे दोनों शब्द भिन्नार्थक हैं । द्रव्याथिक दृष्टिसे दोनों अभिन्न हैं, जीवके ग्रहणसे तद्भिन्न अस्तित्वका भी ग्रहण होता ही है अतः पदार्थ स्यात अस्ति और स्यान्नास्ति रूप हैं। अर्थ अभिधान और प्रत्ययोंकी अस्ति और नास्ति उभयरूपसे प्रसिद्धि होनेके कारण भी पदार्थ अस्ति-नास्ति रूप है। जीव अर्थ जीवशब्द और जीव प्रत्यय ये तीनों अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। लोकमें प्रचलित वाच्यवाचक भाव और ज्ञेयज्ञायक भाव तीनोंके अस्तित्वके साक्षी हैं । शून्यवाद या शब्दाद्वैतवाद मानकर इनका निषेध करना उचित नहीं है । अतः प्रत्येक पदार्थ स्यादस्ति और स्यान्नास्ति रूप है । इनमें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकको तथा पर्यायार्थिक द्रव्याथिकको अपने में अन्तर्भूत करके व्यापार करता है अतः दोनों ही भंग सकलादेशी हैं। जब दो गुणोंके द्वारा एक अखंड अर्थकी युगपत् विवक्षा होती है तो तीसरा अवक्तव्य भंग होता है । जैसे प्रथम और द्वितीय भंगमें एककालमें एक शब्दसे एक गुणके द्वारा समस्त वस्तुका कथन हो जाता है उस तरह जब दो प्रतियोगी गुणोंके द्वारा अवधारण रूपसे युगपत् एक कालमें एक शब्दसे समस्त वस्तुके कहनेकी इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है क्योंकि वैसा शब्द और अर्थ नहीं है। गुणोंके युगपद्भावका अर्थ है कालादिकी दृष्टि से अभेदवृत्ति। वे कालादि आठ हे--काल आत्मरूप अर्थ सम्बन्ध उपकार गुणिदेश संसर्ग और शब्द । जिस कारण गुण परस्पर विरुद्ध हैं अतः उनकी एक कालमें किसी एक वस्तुमें वृत्ति नहीं हो सकती अतः सत्त्व और असत्त्वका वाचक एक शब्द नहीं है । एक वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व परस्पर भिन्न रूपमें हैं उनका एक स्वरूप नहीं है जिससे वे एक शब्दके द्वारा युगपत् कहे जा सकें। परस्पर विरोधी सत्त्व और असत्त्वकी एक अर्थमें वृत्ति भी नहीं हो सकती जिससे अभिन्न आधार मानकर अभेद और युगपद्भाव कहा जाय तथा किसी एक शब्दसे उनका प्रतिपादन हो सके। सम्बन्धसे भी गुणोंमें अभिन्नताकी संभावना नहीं है क्योंकि सम्बन्ध भिन्न होता है। देवदत्त और दंडका सम्बन्ध यज्ञदत्त और छत्रके सम्बन्धसे जुदा है ही। जब कारणभूत सम्बन्धी भिन्न हैं तब कार्यभूत सम्बन्ध एक नहीं हो सकता । इसी तरह सत्त्व और असत्त्वका पदार्थसे अपना-अपना पृथक् ही सम्बन्ध होगा, अतः सम्बन्धकी दृष्टिसे भी अभेदवृत्तिकी संभावना नहीं है । समवायको भी संयोगकी तरह विशेषण भेदसे भिन्न ही होना चाहिये । उपकारदृष्टिसे भी गुण अभिन्न नहीं है, क्योंकि द्रव्यमें अपना प्रत्यय या विशिष्ट व्यवहार कराना रूप उपकार प्रत्येक गुणका जुदा-जुदा है। नील घटमें नीलानुराग और नील प्रत्यय उत्पन्न करता है जब कि पीत पीतानुराग और पीत प्रत्यय । इसी तरह सत्त्व सत् प्रत्यय कराता है और असत्त्व असत्प्रत्यय । अतः उपकारकी दृष्टिसे भी अभेदवृत्ति नहीं बन सकती। फिर गुणीका उपकार एक देशसे नहीं होता जिससे एक देशोपकारक होनेसे उनमें अभेदरूपता लाई जाय। एकान्त पक्षमें गुणोंसे संसष्ट अनेकात्मक रूप नहीं है। जब शुक्ल और कृष्ण वर्ण परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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