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________________ तत्त्वार्थवार्तिक [ ३३९ 8५ जलचर पंचेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थिति मछली आदिकी एक पूर्वकोटि, परिसप गोह नकुल आदिकी ९ पूर्वाङ्ग, उरग-सर्पोकी ४२ हजार वर्ष, पक्षियोंकी ७२ हजार वर्ष, चतुष्पदोंकी तीन पल्य । सबकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । ६ तिर्यं चोंकी आयुका पृथक् निर्देश इसलिए किया है जिससे प्रत्येककी उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकारकी स्थितिका ज्ञान स्वतन्त्र भावसे हो जाय । अन्यथा यथासंख्य अन्वय होकर मनुष्योंकी उत्कृष्ट और तिर्य चोंकी जघन्य यह ज्ञान होता । ४०० एक भवकी स्थिति भवस्थिति कहलाती है और एक कायका परित्याग किये बिना अनेक भव विषयक कायस्थिति होती है । पृथिवी जल तेज और वायुकायिकोंकी उत्कृष्ट कायस्थति असंख्यात लोक है । वनस्पतिकायकी उत्कृष्ट काय स्थिति अनन्तकाल, असंख्यात पुद्गल परिवर्त, आवलिकाका असंख्यात भागमात्र है । विकलेन्द्रियोंकी असंख्यात हजार वर्ष, पंचेन्द्रिय तिर्यं च मनुष्योंकी पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य । संभीकी जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । देव और नारकोंकी भवस्थिति ही कायस्थिति है । तृतीय अध्याय समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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