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________________ २३९] हिन्दी-सार ३९९ ही उत्सर्पिणी। अद्धापल्यसे नारक तिर्यञ्च मनुष्य और देवोंकी कर्मस्थिति भवस्थिति आयस्थिति और कायस्थिति मापी जाती है। अद्धापल्यके अर्धच्छेदोंको विरलनकर प्रत्येक अद्धापल्यको स्थापितकर परस्पर गणा करे, तब जितने रोमच्छेद हों उतने प्रदेशोंको सूच्यंगुल कहते हैं। सूच्यंगुलको सूच्यंगुलसे गुणा करनेपर प्रतरांगुल होता है। प्रतरांगुल को सूच्यंगुलसे गुणा करनेपर घनांगुल होता है । असंख्येय वर्षोंके जितने समय हैं उतने खंडवाला अद्धापल्य स्थापित करे। उनसे अखंख्यात खंडोंको निकालकर एक असंख्यात भागको बुद्धिसे विरलनकर प्रत्येकपर घनांगुलको स्थापित करे। उनका परस्पर गुणा करनेपर एक जगत्श्रेणी होती है। जगत्श्रेणीको जगत्त्रेणीसे गुणा करनेपर प्रतरलोक होता है। प्रतरलोक जगत्श्रेणीसे वर्ग करनेपर घनलोक होता है। क्षेत्र प्रमाण दो प्रकारका है-अवगाह क्षेत्र और विभागनिष्पन्न क्षेत्र । अवगाह क्षेत्र एक दो तीन चार संख्येय असंख्येय और अनन्त प्रदेशवाले पुद्गलद्रव्यको अवगाह देनेवाले आकाश प्रदेशोंकी दृष्टिसे अनेक प्रकारका है। विभाग निष्पन्नक्षेत्र भी अनेक प्रकारका है-- असंख्यात आकाश श्रेणी, क्षेत्र प्रमाणांगुलका एक असंख्यात भाग, असंख्यात क्षेत्र प्रमाणांगुलके असंख्यात भाग, एक क्षेत्र प्रमाणांगुल। पाद बीता आदि पहिलेकी तरह जानना चाहिए। कालप्रमाण-जघन्यगतिसे एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने कालमें जाता है उसे समय कहते हैं। असंख्यात समयकी एक आवली। संख्यात आवलीका एक उच्छ्वास या निश्वास । एक उच्छ्वास निश्वासका एक प्राण । सात प्राणोंका एक स्तोक । सात स्तोकका एक लव । ७७ लवका एक मुहूर्त । ३० मुहूर्तका एक दिन रात । १५ दिन रातका एक पक्ष। दो पक्षका एक माह । दो माहकी एक ऋतु। तीन ऋतुओंका एक अयन । दो अयनका एक संवत्सर। ८४ लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग। ८४ लाख पूर्वाङ्गोंका एक पूर्व । इसी तरह पूर्वाङ्ग पूर्व, नयुतांग नयुत, कुमुदांग कुमुद, पद्मांग पद्म, नलिनांग नलिन, कमलांग कमल, तुट्यांग तुट्य, अटटांग अटट, अममांग अमम, हूहूअंग हूहू, लतांग लता, महालतांग महालता आदि काल वर्षों की गिनतीसे गिना जानेवाला संख्येय कहलाता है। इसके आगेका काल पल्योपम सागरोपम आदि असंख्येय है, उसके अनन्तकाल है जो कि अतीत और अन्तगत रूप है। वह सर्वज्ञके प्रत्यक्षगम्य है। पाँच प्रकारका ज्ञान भावप्रमाण है। तिर्यचोंकी स्थिति तिर्यग्योनिजानां च ॥३६॥ तिर्य चोंकी भी उत्कृष्ट स्थिति तीन पत्य और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। ६१-२ तिर्यच गति नाम कर्मके उदयसे जिनका जन्म हुआ है वे तिर्यच हैं। तिर्यञ्च एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे तीन प्रकारके हैं। १३ शुद्ध पृथिवी कायिकोंकी उत्कृष्ट स्थिति १२ हजार वर्ष, खरपृथिवी कायिकों की २२ हजार वर्ष, वनस्पति कायिकोंकी १० हजार वर्ष, जल कायिकोंकी ७ हजार वर्ष, वायुकायिकोंकी तीन हजार वर्ष और तेजस्कायिकोंकी तीन रात दिन है।। ६४ द्वीन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थिति १२ वर्ष, त्रीन्द्रियोंकी ४९ दिन रात और चतुरिन्द्रियोंकी ६ माह है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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