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________________ ३।११] हिन्दी-सार . ३८३ इसमें शब्दवान् वृत्तवेदाढयकी तरह माल्यवान् वृत्तवेदाढय है। इसपर प्रभासदेवका निवास है। २०-२२ शिखरी पर्वत तथा पूर्व-पश्चिम और दक्षिण-उत्तर समुद्रोंके बीच ऐरावत क्षेत्र है। रक्ता तथा रक्तोदा नदियोंके बीच अयोध्या नगरी है। इसमें एक ऐरावत नामका राजा हुआ था। उसके कारण इस क्षेत्रका ऐरावत नाम पड़ा है। इसके बीचमें विजया पर्वत है। पर्वतोंका वर्णनतद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥११॥ पूर्व और पश्चिम लवण समुद्र तक लम्बे हिमवन् महाहिमवन् निषध नील रुक्मी और शिखरी ये छह पर्वत हैं । इन पर्वतोंके कारण भरत आदि क्षेत्रोंका विभाग होता है अतः ये वर्षधर पर्वत कहे जाते हैं। १-२ हिम जिसमें पाया जाय वह हिमवान् । चूंकि सभी पर्वतोंमें हिम पाया जाता है अतः रूढिसे ही इसकी हिमवान् संज्ञा समझनी चाहिए। यह भरत और हैमवत क्षेत्रकी सीमापर स्थित है। इसे क्षुद्रहिमवान् कहते हैं। यह २५ योजन पृथ्वीके नीचे, १०० योजन ऊंचा १०५२११ योजन विस्तृत है। इसके ऊपर पूर्व दिशामें सिद्धायतन कूट है। पश्चिम दिशा में हिमवत् भरत इला गंगा श्री रोहितास्या सिन्धु सुरा हैमवत् और वैश्रवण ये दश कूट हैं इन सब पर चैत्यालय और प्रासाद हैं। इनमें हिमवत् भरत हैमवत् और वैश्रवण कूट पर इन्हीं नामवाले देव तथा शेष कूटों पर उसी नामवाली देवियाँ रहती हैं। ३-४ महाहिमवान् संज्ञा रूढ़िसे है। यह हैमवत और हरिवर्षका विभाग करनेवाला है । ५० योजन गहरा २०० योजन ऊंचा और ४२१०१६ योजन विस्तृत है। इसपर सिद्धायतन महाहिमवत् हैमवत् रोहित् हरि हरिकान्ता हरिवर्ष और वैडूर्य ये आठ कुट है। कूटोंमें चैत्यालय और प्रासाद है। प्रासादोंमें कूटके नामवाले देव और देवियाँ निवास करती हैं। ६५-६ जिसपर देव और देवियाँ क्रीड़ा करें वह निषध । यह संज्ञा रूढ है। यह हरि और विदेह क्षेत्रकी सीमा पर है। यह १०० योजन गहरा ४०० योजन ऊंचा और १६८४२१२ योजन विस्तृत है । इस पर सिद्धायतन निषध हरिवर्ष पूर्वविदेह हरि घृति सीतोदा अपरविदेह और रुचकनामके नव कूट हैं । कूटोंपर चैत्यालय और देवप्रासाद हैं। इनमें कूटोंके नामवाले देव और देवियाँ रहती है। ७-८ नीलवर्ण होनेके कारण इसे नील कहते हैं। वासुदेवकी कृष्णसंज्ञाकी तरह यह संज्ञा है। यह विदेह और रम्यक क्षेत्रकी सीमापर स्थित है। इसका विस्तार आदि निषधके समान है। इस पर सिद्धायतन नील पूर्वविदेह सीता कीर्ति नरकान्ता अपरविदेह रम्यक और आदर्शक ये नव कूट हैं। इन पर चैत्यालय और प्रासाद हैं। प्रासादोंमें अपने कूटों के नाम वाले देव और देवियों रहती हैं। ९-१० चाँदी जिसमें पाई जाय वह रुक्मी । यह रूढ संज्ञा है जैसे कि हाथीकी करिसंज्ञा। यह रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्रका विभाग करता है। इसका विस्तार आदि महा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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