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________________ ३६] हिन्दी-सार व्याघ्र कौआ उल्ल आदिके द्वारा खिलाया जाना, गरम रेत पर सुला देना, वैतरिणीमें पटकना आदिके द्वारा नारकियोंके तीव्र दुःखके कारण होते हैं । वे ऐसे कलहप्रिय और संक्लेशमना हैं कि जब तक वे इस प्रकारकी मारकाट मार-धाड़ आदि नहीं करा लेते तब तक उन्हें शान्ति नहीं मिलती जैसे कि यहाँ कुछ रुद्र लोग मेढ़ा तीतर मुर्गा बटेर आदिको लड़ाकर अपनी रौद्रानन्दी कुटेवकी तृप्ति करते हैं। यद्यपि उनके देवगति नामकर्मका उदय है फिर भी उनके माया मिथ्या निदान शल्य, तीव्र कषाय आदिसे ऐसा अकुशलानुबन्धी पुण्य बंधा है जिससे उन्हें अशुभ और संक्लेशकारक प्रवृत्तियोंमें ही आनन्द आता है। इस तरह भयंकर छेदन भेदन आदि होनेपर भी नारकियोंकी कभी अकालमृत्यु नहीं होती। नारकियोंकी आयुतेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः॥६॥ इन नरकोंके जीवोंकी क्रमशः एक तीन सात दस सत्रह बाईस और तेंतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है। १-२ सागरमें जिस प्रकार अपार जलराशि होती है उसी तरह नारकियोंकी आयुमें निषेकोंकी संख्या अपार होती है अतः सागरकी उपमासे आयुका निर्देश किया है। एक आदि शब्दोंका द्वन्द्व समास करके सागरोपमा विशेषणसे अन्वय कर देना चाहिए। प्रश्न-जब 'एका च तिस्रश्च' इत्यादि विग्रहमें एक शब्द स्त्रीलिंग है तब सूत्रमें उसका पुल्लिग रूपसे निर्देश कैसे हो गया ? उत्तर-यह पुल्लिग निर्देश नहीं है किन्तु 'एकस्याः क्षीरम् एकक्षीरम्'की तरह औत्तरपदिक ह्रस्वत्व है । अथवा 'सागर उपमा यस्य तत् सागरोपमम् आयुः' फिर, 'एकं च त्रीणि च' आदि विग्रह करके स्त्रीलिंग स्थिति शब्दसे बहुव्रीहि समास करने पर स्थिति शब्दकी अपेक्षा स्त्रीलिंग निर्देश है । ३ द्वितीय सूत्रसे 'यथाक्रमम्'का अनुवर्तन करके क्रमशः रत्नप्रभा आदिसे सम्बन्ध कर लेना चाहिए। रत्नप्रभाकी एक सागर, शर्करा प्रभाकी तीन सागर आदि । ६४-५ प्रश्न-'तेषु' कहनेसे रत्नप्रभा पृथिवीके सीमन्तक आदि नरक पटलोंमें ही पूर्वोक्त स्थितिका सम्बन्ध होना चाहिए; क्योंकि प्रकरण-सामीप्य इन्हींसे है । पर यह आपको इष्ट नहीं है। अतः 'तेषु' यह पद निरर्थक है । उत्तर-जो रत्नप्रभा आदिसे उपलक्षित तीस लाख पच्चीस लाख आदिरूपसे नरकबिल गिने गए हैं उन नरकोंके जीवोंकी एक सागर आदि आयु विवक्षित है। अथवा, नरक सहचरित भूमियोंको भी नरक ही कहते हैं, अतः इन रत्नप्रभा आदि नरकोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी यह स्थिति है। इसीलिए 'तेषु' पद की सार्थकता है, अन्यथा भूमिसे आयुका सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता क्योंकि वे व्यवहित हो गई हैं। ६ 'सत्त्वानाम्' यह स्पष्ट पद दिया है अतः नरकवासी जीवोंकी यह स्थिति है न कि नरकों की। ६७ परा अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति । रत्नप्रभा आदिमें प्रस्तार क्रमसे जघन्य स्थिति इस प्रकार है ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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