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________________ ३७६ तत्त्वार्थवार्तिक [श४-५ होते हैं। उनके शरीर अशुभ नाम कर्मके उदयसे हुंडक संस्थानवाले बीभत्स होते हैं। यद्यपि उनका शरीर वैक्रियिक है फिर भी उसमें मल मूत्र पीब आदि सभी बीभत्स सामग्री रहती है। प्रथम नरकमें शरीरकी ऊंचाई ७ धनुष ३ हाथ और ६ अंगुल है। आगेके नरकोंमें दूनी होकर सातवें नरकमें ५०० धनुष हो जाती है । आभ्यन्तर असातावेदनीय के उदयसे शीत उष्ण आदिकी बाह्य तीव्र वेदनाएं होती हैं। नरकोंमें इतनी गरमी होती है कि यदि हिमालय बराबर तांबेका गोला उसमें डाल दिया जाय तो वह क्षणमात्रमें गल जायगा, और यदि वही पिघला हुआ शीतनरकोंमें डाला जाय तो क्षणमात्रमें ही जम जायगा । आदिके चार नरकोंमें उष्णवेदना है । पाँचवेंके दो लाख बिलोंमें उष्णवेदना तथा शेषमें शीतवेदना है। छठवें और सातवेंमें शीतवेदना ही है । तात्पर्य यह है कि ८२ लाख नरक उष्ण हैं और दो लाख नरक शीत । नारकी जीव विचारते हैं कि शुभ करें पर कर्मोदयसे होता अशुभ ही है। दुःख दूर करनेके जितने उपाय करते हैं उनसे दूना दुःख ही उत्पन्न होता है। परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ ११ जिस प्रकार एक कुत्ता दूसरे कुत्तेको देखकर अकारण ही भोंकता है और काटता है उसी तरह नारकी तीव्र अशुभ कर्मके उदयसे तथा विभङ्गावधिसे पूर्वकृत वैरके कारणोंको जान जानकर निरन्तर एक दूसरेको तीव्र दुःख उत्पन्न करते रहते हैं । आपसमें मारना काटना छेदना घानीमें पेलना आदि भयंकर दुःख कारणोंको जुटाते रहते हैं। संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ पूर्वभवके संक्लेशपरिणामोंसे बाँधे गये अशुभ कर्मके उदयसे सतत संक्लेशपरिणामवाले असुरकुमार चौथे नरकसे पहिले नारकियोंको परस्पर लड़ाते भिड़ाते हैं। १-५ असुर नामक देवगतिके उदयसे असुर होते हैं । सभी असुर संक्लिष्ट नहीं होते किन्तु अम्बाम्बरीष आदि जातिके कुछ ही असुर। तीसरी पृथिवी तक ही इनकी गमन शक्ति है । यद्यपि 'आचतुर्थ्यः' कहने से लघुता होती फिर भी चूंकि 'आङ' का अर्थ मर्यादा और अभिविधि दोनों ही होता है अत: सन्देह हो सकता था कि 'चौथी पृथ्वीको भी शामिल करना या नहीं ?' इसलिए स्पष्ट और असन्दिग्ध अर्थबोधके लिए 'प्राक्' पद दिया है । ६ 'च' शब्द पूर्वोक्त दुःख हेतुओंके समुच्चयके लिए है, अन्यथा तीन पृथिवियोंमें पूर्वहेतुओंके अभावका प्रसङ्ग होता। ७ यद्यपि पूर्वसूत्र में उदीरित शब्द है फिर भी चूंकि वह समासान्तर्गत होनेसे गौण हो गया है अतः उसका यहाँ सम्बन्ध नहीं हो सकता था अतः इस सूत्रमें पुन: 'उदीरित' शब्द दिया है। ६८ यद्यपि 'परस्परेणोदीरितदुःखाः संक्लिष्टासुरैश्च प्राक् चतुर्थ्या:' ऐसा एक वाक्य बनाया जा सकता था फिर भी उदीरणाके विविध प्रकारोंके प्रदर्शनके लिए पृथक् उदीरित शब्द देकर पूर्वोक्त सूत्र बनाए हैं। नरकोंमें असुर कुमार जातिके देव परस्पर तपे हुए लोहेको पिलाना, जलते हुए लोहस्तम्भसे चिपटा देना, लौह-मुद्गरोंसे ताड़ना, बसूला छुरी तलवार आदिसे काटना, तप्त तैलसे सींचना, भाँडमें मूंजना, लोहेके घड़े में पका देना, कोल्हमें पेल देना, शूली पर चढ़ा देना, करोंतसे काट देना, सुई जैसी घास पर घसीटना, सिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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