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________________ २।१९] हिन्दी-सार ३५७ स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्राणि ॥१६॥ स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियां हैं। १ स्पर्शन आदि शब्द करणसाधन और कर्तृसाधन दोनोंमें निष्पन्न होते हैं। 'मैं इस आंखसे देखता हूं' इत्यादि रूपसे जब आत्मा स्वतन्त्र विवक्षित होता है तो इन्द्रियां परतन्त्र होनेसे करण बन जाती हैं । वीर्यान्तराय और उन उन इन्द्रियावरणोंके क्षयोपशम होनेपर 'स्पृशति अनेन आत्मा-छूता है जिससे आत्मा' इत्यादि करणसाधनता बन जाती है। जब 'मेरी आंख अच्छा देखती है' इत्यादि रूपसे इन्द्रियोंकी स्वतन्त्रता विवक्षित होती है तब 'स्पृशतीति स्पर्शनम्' जो छुए वह स्पर्शन इत्यादि रूपसे कर्तृसाधनता बन जाती है। इसमें आत्मा स्वयं स्पर्शन आदि रूपसे विवक्षित होता है । २ कोई सूत्रमें 'इन्द्रियाणि' यह पाठ अधिक मानते हैं, पर चूंकि इन्द्रियोंका प्रकरण है अतः 'पंचेन्द्रियाणि' सूत्रसे 'इन्द्रियाणि'का अनुवर्तन हो जाता है इसलिए उक्त पाठ अधिक मानना व्यर्थ है। ३-१० स्पर्शनेन्द्रिय सर्वशरीरव्यापी है, 'वनस्पत्यन्तानामेकम्' इस सूत्रमें एक शब्दसे स्पर्शनेन्द्रियका ग्रहण करना है और सभी संसारी जीवोंके यह अवश्य पाई जाती है अतः सूत्रमें इसका ग्रहण सर्वप्रथम किया है । प्रदेशोंकी दृष्टिसे सबसे कम चक्षु प्रदेश हैं, श्रोत्रेन्द्रियके संख्यातगुणे, घाणेन्द्रियके इससे कुछ अधिक और रसनाके असंख्यातगुणें । अतः क्रमशः रसना आदि इन्द्रियोंका ग्रहण किया है । यद्यपि इस क्रममें चक्षुको सबसे पीछे लेना चाहिये था, फिर भी चूंकि श्रोत्रेन्द्रिय बहूपकारी है-इसीसे उपदेश सुनकर हितप्राप्ति और अहितपरिहारमें प्रवृत्ति होती है अतः इसीको अन्तमें लिया है। रसनाको भी वक्तृत्वके कारण बहूपकारी कहनेका सीधा अर्थ तो यह है कि शंकाकार श्रोत्रकी बहूपकारिता तो स्वीकार करता ही है । रसनाके द्वारा वक्तृत्व तो तब होता है जब पहिले श्रोत्रसे शब्दोंको सुन लेता है । अतः अन्ततः श्रोत्र ही बहूपकारी है। यद्यपि सर्वज्ञमें श्रोत्रेन्द्रियसे सुननेके बाद वक्तृत्व नहीं देखा जाता क्योंकि वे समग्र ज्ञानावरणके क्षय हो जानेपर रसनेन्द्रियके सद्भाव मात्रसे उपदेश देते हैं, तथापि यहाँ इन्द्रियोंका प्रकरण होनेसे इन्द्रियजन्य वक्तृत्ववालोंकी ही चरचा है केवलियोंकी नहीं। ११ आगे आनेवाले 'कृमिपिपीलिका' आदि सूत्रमें एक एक वृद्धिके साथ संगति बैठानेके लिए स्पर्शनादि इन्द्रियोंका क्रम रखा है। १२ इन्द्रियोंका परस्पर तथा आत्मासे कथञ्चित् एकत्व और नानात्व है। ज्ञानावरणके क्षयोपशम रूप शक्तिकी अपेक्षा सभी इन्द्रियां एक हैं। समुदायसे अवयव भिन्न नहीं होते हैं अतः समुदायकी दृष्टिसे एक हैं। सभी इन्द्रियोंके अपने अपने क्षयोपशम जुदे जुदे हैं और अवयव भी भिन्न हैं अतः परस्पर भिन्नता है। साधारण इन्द्रिय बुद्धि और शब्द प्रयोगकी दृष्टिसे एकत्व है और विशेषकी दृष्टिसे भिन्नता है । आत्मा ही चैतन्यांशका परित्याग नहीं करके तपे हुए लोहेके गोलेकी तरह इन्द्रिय रूपसें परिणमन करता है, उसको छोड़कर इन्द्रियां पृथक् उपलब्ध नहीं होती अतः आत्मा और इन्द्रियोंमें एकत्व है अन्यथा आत्मा इन्द्रियशून्य हो जायगा । किसी एक इन्द्रियके नष्ट हो जाने पर भी आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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