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________________ ३५६ तत्त्वार्थवार्तिक [२०१६-१८ मनका व्यापार होता है। जब आत्माको रूप देखनेका मन होता है तब ही वह मनके द्वारा उपयोगको रूपाभिमुख करता है, इसके बाद ही इन्द्रिय व्यापार होता है अतः मन अनिन्द्रिय है। ५-६ सांख्य वाक् पाणि पाद गुदा और उपस्थ (पुरुष या स्त्रीका चिह्न) इनको वचन आदि क्रियाका साधन होनेसे कर्मेन्द्रिय मानते हैं। पर चूंकि यहां उपयोगका प्रकरण है अतः उपयोगके साधन ज्ञानेन्द्रियोंका ही ग्रहण किया है। क्रियाके साधन अंगोंको यदि इन्द्रियोंकी श्रेणी में गिना जाय तो सिर आदि अनेक अवयवोंको भी इन्द्रिय मानना होगा अर्थात् इन्द्रियोंकी कोई संख्या ही निश्चित नहीं की जा सकेगी। इन्द्रियोंके भेद द्विविधानि ॥१६॥ इन्द्रियां दो प्रकार की हैं-एक द्रव्येन्द्रिय और दूसरी भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रियाँ निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥१७॥ निर्वृत्ति और उपकरणके भेदसे द्रव्येन्द्रियां दो प्रकार की हैं। १-४ नाम कर्मसे जिसकी रचना हो उसे निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकार की है। उत्सेधांगुलके असंख्यातभागप्रमाण विशुद्ध आत्म-प्रदेशोंकी चक्षुरादिके आकाररूपसे रचना आभ्यन्तर निर्वृत्ति है अर्थात् आत्मप्रदेशोंका चक्षु आदिके आकार रूप होना। नाम कर्मके उदयसे शरीर पुद्गलोंकी इन्द्रियोंके आकाररूपसे रचना होना बाह्यनिर्वृत्ति है। ५-६ जो निर्वृत्तिका उपकार करे वह उपकरण है। आंख में सफेद और काला मंडल आभ्यन्तर उपकरण है और पलक आदि बाह्य उपकरण है । भावेन्द्रियां लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥१८॥ लब्धि और उपयोग भावेन्द्रियां हैं। लाभको लब्धि कहते हैं। षित्त्वात् अङप्रत्यय होकर लब्ध इसलिए नहीं बना कि अनुबन्धकृत विधियां अनित्य होती हैं। महाभाष्यमें भी अनुपलब्धि प्रयोग है। अथवा, स्त्रीलिंग क्तिन् प्रत्यय करके लब्धि शब्द सिद्ध हो जाता है। १ जिस ज्ञानावरणक्षयोपशमके रहनेपर आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचनाके लिए व्यापार करता है उसे लब्धि कहते हैं। २-४ लब्धिके अनुसार होनेवाला आत्माका ज्ञानादि व्यापार उपयोग है। यद्यपि उपयोग इन्द्रियका फल है फिर भी कारणके धर्मका कार्यमें उपचार करके उसे भी इन्द्रिय कहा है जैसे कि घटाकार परिणत ज्ञानको घट कह देते हैं। 'इन्द्रका लिंग, इन्द्रके द्वारा सृष्ट' इत्यादि शब्दव्युत्पत्ति तो मुख्य रूपसे उपयोगमें ही घटती है। अतः उपयोगको इन्द्रिय कहने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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