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________________ ३४५ २७] हिन्दी-सार बन्धनबद्धता यद्यपि जीवमें ही पाई जाती है पर वह पारिणामिक नहीं है किन्तु कर्मोदयनिमित्तक है। प्रदेशवत्व भी सर्वद्रव्यसाधारण है, सब अपने अपने नियत प्रदेशोंको रखते हैं। अरूपत्व भी जीव धर्म अधर्म आकाश और काल द्रव्योंमें साधारणं है । नित्यत्व भी द्रव्यदृष्टिसे सर्वद्रव्यसाधारण है। अग्नि आदि की भी ऊर्ध्वगति होती है अतः ऊर्ध्वगतित्व भी साधारण है । इसी तरह आत्मामें अन्य भी साधारण पारिणामिक भाव होते हैं। १४-१८ प्रश्न-गति आदि औदयिक भावोंके संग्रहके लिए 'च' शब्द मानना चाहिये। उत्तर-गति आदि पारिणामिक नहीं हैं किन्तु कर्मोदयनिमित्तक हैं अतः सत्र में पारिणामिक भाव तीन ही बताए हैं। क्षयोपशम भावकी तरह गति आदिको औदयिक और पारिणामिक रूपसे उभयरूप नहीं कह सकते; गति आदि भाव केवल औदयिक हैं पारिणामिक नहीं । यदि ये पारिणामिक होते तो जीवत्वकी तरह सिद्धोंमें भी पाए जाते। आगममें जिस प्रकार क्षय और उपशमका 'मिश्र' क्षायोपशमिक बताया है उस तरह औदयिक और पारिणामिकको मिलाकर एक अन्य मिश्र' नहीं बताया है । अतः अस्तित्व आदि के समुच्चयके ही लिए 'च' शब्द दिया गया है। १९-२० प्रश्न-अस्तित्व आदिके समुच्चयके लिए सूत्रमें 'आदि' शब्द देना चाहिये? उत्तर-आदि शब्द देनेसे पारिणामिक भाव 'तीन' ही नहीं रहेंगे। च शब्दसे गौणरूप से द्योतित होनेवाले अस्तित्व आदि भावोंकी संख्यासे पारिणामिक भावोंकी मुख्य तीन संख्या का व्याघात नहीं होता; क्योंकि प्रधान और असाधारण पारिणामिक तीन ही विवक्षित हैं । और यदि 'आदि' शब्द दिया जाता तो आदि शब्दसे सूचित होनेवाले अस्तित्व आदिका ही प्राधान्य हो जाता, जीवत्व भव्यत्व और अभव्यत्व तो उपलक्षक हो जानेसे गौण ही हो जाते। यदि तद्गुणसंविज्ञान पक्ष भी लिया जाय तो भी दोनोंकी ही समानरूपसे प्रधानता हो जायगी। २१-२२ सान्निपातिक नामका कोई छठवां भाव नहीं है। यदि है भी तो वह 'मिथ' शब्दसे गृहीत हो जाता है। 'मिश्र' शब्द केवल क्षयोपशमके लिए ही नहीं है किन्तु उसके पास ग्रहण किया गया 'च' शब्द सूचित करता है कि मिश्र शब्दसे क्षायोपशमिक और सानिपातिक दोनोंका ग्रहण करना चाहिए । सान्निपातिक नामका एक स्वतन्त्र भाव नहीं है । संयोग भंगकी अपेक्षा आगममें उसका निरूपण किया गया है। सान्निपातिक भाव २६, ३६ और ४१ आदि प्रकारके बताए हैं। द्विसंयोगी १०, त्रिसंयोगी १०, चतुःसंयोगी ५ और पंचसंयोगी १ इस तरह २६ भाव होते हैं। विसंयोगी-१ औदयिक-औपशमिक- मनुष्य और उपशान्त क्रोध । २ औदयिक-क्षायिक- मनुष्य और क्षीणकषायी। ३ औदयिक-क्षायोपशमिक- मनुष्य और पंचेन्द्रिय। ४ औदयिक-पारिणामिक- लोभी और जीव। ५ औपशमिक-क्षायिक- उपशान्त लोभ और क्षायिक सम्यग्दृष्टि । ६ औपशमिक-क्षायोपशमिक- उपशान्तमान और मतिज्ञानी। ७ औपशमिक-पारिणामिक-उपशान्तमाया और भव्य । ८ क्षायिक-क्षायोपशमिकक्षायिक सम्यग्दृष्टि और श्रुतज्ञानी। ९ क्षायिक-पारिणामिक-क्षीणकषाय और भव्य । १० क्षायोपशमिक-पारिणामिक-अवधिज्ञानी और जीव । इस तरह विसंयोगीक १० भेद होते हैं। त्रिसंयोगी-१ औदयिक-औपशमिक-क्षायिक- मनुष्य उपशान्तमोह और क्षायिकसम्यग्दृष्टि । २ औदयिक-औपशमिक-क्षायोपशमिक- मनुष्य उपशान्त क्रोध और वाग्योगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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