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________________ ३४४ तत्त्वार्थवार्तिक [२७ है। जैसे कि उस कनक पाषाणको जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अन्धपाषाण नहीं कह सकते अथवा उस आगामी कालको जो अनन्तकालमें भी नहीं आयगा अनागामी नहीं कह सकते उसी तरह सिद्धि न होने पर भी भव्यत्वशक्ति होनेके कारण उसे अभव्य नहीं कह सकते । वह भव्यराशिमें ही शामिल है। ६१० प्रश्न-द्वन्द्व समासके बाद भावार्थक 'त्व' प्रत्यय करनेपर चूंकि भाव एक है अतः एकवचन प्रयोग होना चाहिए ? उत्तर-द्रव्य भेदसे भाव भी भिन्न हो जाता है अतः भेद विवक्षामें बहुवचन किया गया है। 'स्व' का प्रत्येकसे सम्बन्ध कर लेना चाहिएजीवत्व भव्यत्व और अभव्यत्व। . ११ आगममें सासादन गुणस्थानमें दर्शन मोहके उदय उपशम क्षय या क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेके कारण जो पारिणामिक भाव बताया है वह सापेक्ष है। वस्तुतः वहां अनन्तानुबन्धिका उदय होनेसे औदयिक भाव ही है । अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया है। १२-१३ अस्तित्व अन्यत्व कर्तृत्व भोक्तृत्व पर्यायवत्त्व असर्वगतत्व अनादिसन्ततिबन्धनबद्धत्व प्रदेशवत्त्व अरूपत्व नित्यत्व आदिके समुच्चयके लिए सूत्रमें 'च' शब्द दिया है। चूंकि ये भाव अन्य द्रव्योंमें भी पाए जाते है अतः असाधारण पारिणामिक जीवभावोंके निर्देशक इस सूत्रमें इनका ग्रहण नहीं किया है, यद्यपि ये सभी भाव कर्मके उदय उपशम क्षय क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेके कारण पारिणामिक हैं। अस्तित्व छहों द्रव्योंमें पाया जाता है अतः साधारण है। एक द्रव्य दूसरेसे भिन्न होता है, अतः अन्यत्व भी सर्वद्रव्यसाधारण है । स्वकार्यका कर्तृत्व भी सभी द्रव्योंमें ही है। धर्म अधर्म आदिमें भी 'अस्ति' आदि क्रियाओंका कर्तृत्व है ही। आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप योग क्षायोपशमिक है। जीवका पुण्य पाप सम्बन्धी कर्तृत्व कर्मके उदय और क्षयोपशमके अधीन होनेसे पारिणामिक नहीं है। मिथ्यादर्शन दर्शनमोहके उदयसे, अविरति प्रमाद और कषाय चारित्र मोहके उदयसे और योग वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होते हैं। चैतन्य होनेके कारण ही यदि पुण्य पापका कर्तृत्व जीवका असाधारण धर्म माना जाय तो मुक्त जीवोंमें भी पुण्यपापका कर्तृत्व मानना होगा। अतः कर्तृत्व सर्वद्रव्यसाधारण धर्म है। एक प्रकृष्ट शक्तिवाले द्रव्यके द्वारा दूसरे द्रव्यकी सामर्थ्यको ग्रहण करना भोक्तृत्व कहलाता है। जैसे कि आत्मा आहारादिद्रव्यकी शक्तिको खींचनेके कारण भोक्ता कहा जाता है । ऐसा भोक्तृत्व सर्वसाधारण ही है । विष द्रव्य अपनी तीव्र शक्तिसे कोदों आदिकी शक्तिको खींच लेता है अतः वह उसका भोक्ता ह। नमककी झील लकड़ी पत्थर आदिको नमक बना देती है अतः वह उनकी भोक्त्री है। पदार्थोकी तत्तत् प्रतिनियत शक्तियोंके कारण द्रव्योंमें परस्पर भोक्तृभोग्यभाव होता है । वीर्यान्तरायके क्षयोपशम अङ्गोपाङ्ग नाम कर्मका उदय आदि कारणोंसे शुभअशुभ कर्मपुद्गलके फल भोगनेकी शक्ति आत्मामें आती है। आहारादिके भोगनेकी शक्ति भोगान्तरायके क्षयोपशमसे और उसको पचानेकी शक्ति वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होती है । पर्यायवत्त्व भी सभी द्रव्योंमें पाया जाता है। आकाशको छोड़कर परमाणु आदि सभी द्रव्योंमें असर्वगतत्व धर्म पाया जाता है । जीवका स्वशरीर प्रमाण अवगाहनाको धारण करना कर्मोदयनिमित्तक होनेसे पारिणामिक नहीं है । सभी द्रव्य अपने अनादिकालीन स्वभाव सन्ततिसे बद्ध हैं, सभीके अपने अपने स्वभाव अनाद्यनन्त हैं। अनादिकालीन कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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