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________________ द्वितीय अध्याय जीवके स्वभाव या स्वतत्त्वोंका वर्णनऔपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिकौ च ॥१॥ औपशमिक क्षायिक मिश्र औदयिक और पारिणामिक ये पांच जीवके स्वतत्त्व हैं। ६१ जैसे कलकफल या निर्मलीके डालनेसे मैले पानीका मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है उसी तरह परिणामोंकी विशुद्धिसे कर्मों की शक्तिका अनुभूत रहना उपशम है। उपशमके लिए जो भाव होते हैं वे औपशमिक हैं। २ जिस जलका मैल नीचे बैठा हो उसे यदि दूसरे बर्तन में रख दिया जाय तो जैसे उसमें अत्यन्त निर्मलता होती है उसी तरह कर्मो की अत्यन्त निवृत्तिसे जो आत्यन्तिक विशुद्धि होती है वह क्षय है और कर्मक्षयके लिए जो भाव होते हैं वे क्षायिक भाव हैं। ३ जैसे कोदोंको धोनेसे कुछ कोदोंकी मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की अक्षीण उसी तरह परिणामोंकी निर्मलतासे कर्मों के एकदेशका क्षय और एकदेशका उपशम होना मिश्र भाव है। इस क्षयोपशमके लिए जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक कहते हैं । ६४ द्रव्य क्षेत्र काल और भावके निमित्तसे कर्मोका फल देना उदय है और उदयनिमित्तक भावोंको औदयिक कहते हैं। ५-६ जो भाव कर्मों के उपशमादिकी अपेक्षा न रखकर द्रव्यके निजस्वरूपमात्रसे होते हैं उन्हें पारिणामिक कहते हैं। ७-१५ यद्यपि औदयिक और पारिणामिक भव्य और अभव्य सभी जीवोंमें रहते हैं अतः बहुव्यापी हैं फिर भी भव्यजीवोंके धर्मविशेषोंको प्रधानता देने के लिए औपशमिक आदिका प्रथम ग्रहण किया है। उनमें भी औपशमिकको प्रथम इसलिए ग्रहण किया है कि सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन औपशमिक ही होता है फिर क्षायोपशमिक और फिर क्षायिक । उपशम सम्यग्दृष्टि अन्तर्मुहूर्त कालमें अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यात भाग तक हो सकते हैं। अतः संख्याकी दृष्टिसे सभी सम्यग्दृष्टियोंमें अल्प हैं और उसका काल भी अल्प है। क्षायिक सम्यग्दर्शन में मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीनों प्रकृतियोंका क्षय हो जानेसे परम विशुद्धि है और क्षायिक सम्यग्दर्शनका काल तेंतीस सागर है अत: इतने समय तक संचयकी दृष्टिसे जीवोंकी संख्या औपशमिककी अपेक्षा आवलिके असंख्यात भागसे गुणित है अतः विशुद्धि और संख्याकी दृष्टिसे अधिक होनेके कारण क्षायिकका औपशमिकके बाद ग्रहण किया है। यद्यपि क्षायिक भाव शुद्धिकी दृष्टिसे क्षायोपशमिकसे अनन्तगुणा है तो भी छयासठ सागर कालमें संचित क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियोंकी संख्या क्षायिकसे आवलिकाके असंख्यात भाग गुणित है अतः क्षायिकके बाद इसका ग्रहण किया है। औदयिक और पारिणामिककी संख्या सबसे अनन्तगुणी है, अतः दोनोंका अन्तमें ग्रहण किया है । ये दोनों भाव सभी जीवोंके समान संख्यामें होते हैं तथा इनसे ही अतीन्द्रिय और अमूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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