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हिन्दी-सार आक ' यदृच्छासे सत्को सत् और असत्को असत् कहने पर भी उसका वह मिथ्याज्ञान ही है। जैसे कि कोई पागल गायको घोड़ा या घोडाको गाय कहता है, कभी गायको गाय और घोड़ेको घोड़ा कहने पर भी उसका सब पागलपन ही कहा जाता है ।
२ अथवा सत् शब्द विद्यमानार्थक है । वह कभी विद्यमानको अविद्यमान अविद्यमानको विद्यमान रूपसे जानता है ।
३ इसका कारण है विभिन्न मतवादियों द्वारा वस्तुके स्वरूपका विभिन्न प्रकार से वर्णन और प्रचार करना । किन्हींका (अद्वैत) कहना है कि द्रव्य ही है, रूपादिकी सत्ता नहीं है तो कोई (बौद्ध) रूपादिको ही मानना चाहते हैं द्रव्यको नहीं । कोई (वैशेषिक) कहते हैं कि द्रव्यसे रूपादि गुण भिन्न होते हैं। ये तीनों ही पक्ष मिथ्या है; क्योंकि यदि द्रव्य ही हो रूपादि न हो तो द्रव्यका परिचायक लक्षण न रहनेसे लक्ष्यभूत द्रव्यका ही अभाव हो जायगा। इन्द्रियोंसे रे द्रव्यका अखण्ड रूपसे ग्रहण होनेके कारण पाँच इन्द्रियाँ माननेकी आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि द्रव्य तो किसी एक भी इन्द्रियसे पूर्ण रूपसे गृहीत हो ही जायगा। पर ऐसा मानना न तो इष्ट ही है और न प्रमाणप्रसिद्ध ही। इसी तरह यदि द्रव्य का अस्तित्व न हो तो निराश्रय रूपादिका आधार क्या होगा ? यदि रूपादि परस्परमें अभिन्न हों तो एकसे अभिन्न होनेके कारण सभी एक हो जायेंगे समुदायका अभाव ही हो जायगा। यदि द्रव्य और गुणमें सर्वथा भेद है तो उनमें परस्पर लक्ष्यलक्षणभाव नहीं हो सकेगा। दण्ड और दण्डीकी तरह पृथक् सिद्धगत लक्ष्यलक्षणभाव तो तब बन सकता है जब द्रव्य और गुण दोनों पृथक् सिद्ध हों। द्रव्यसे भिन्न अमूर्त रूपादि गुणोंसे इन्द्रियका सन्निकर्ष भी नहीं होगा और इस तरह उनका परिज्ञान करना ही असम्भव हो जायगा; क्योंकि भिन्न द्रव्य तो कारण हो नहीं सकेगा।
४ केवल स्वरूप में ही नहीं किन्तु जगत्के मूल कारणोंमें ही प्रवादियोंको विवाद है। जैसे सांख्यों का मत है कि-अव्यक्त प्रकृतिसे महान्-बुद्धि, महान्से अहङ्कार, अहङ्कार से पाँच इन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियोंके विषय तन्मात्रा और पृथिवी आदि पाँच महाभूत और मन ये सोलह गण और पाँच महाभूतोंसे यह दृश्य जगत् उत्पन्न होता है। यह मत निर्दोष नहीं है; क्योंकि अमूर्त निरवयव निष्क्रिय अतीन्द्रिय नित्य और पर प्रयोगसे अप्रभावित प्रधानसे मूर्त सावयव सक्रिय इन्द्रियग्राह्य आदि विपरीत लक्षणवाले घटादि पदार्थोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । स्वयं चेतनाशून्य प्रधानका इस तरह बुद्धिपूर्वक सृष्टिको उत्पन्न करना सम्भव ही नहीं है । पुरुष स्वयं निष्क्रिय है वह प्रधानको प्रेरणा भी नहीं दे सकता । फिर प्रधानको सृष्टि के उत्पन्न करनेका खास प्रयोजन भी नहीं दिखाई देता। 'पुरुषको भोग सम्पादन करना' यह प्रयोजन भी नहीं हो सकता; क्योंकि नित्य और विभु आत्माका भोक्तारूपसे परिणमन ही नहीं हो सकता। स्वयं अचेतन प्रधान प्रेरित होकर भी बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं कर सकता।
वैशेषिकों का मत है कि-पथिवी आदि द्रव्योंके जुदा जुदा परमाणु हैं । उनमें अदृष्ट आदिसे क्रिया होती है फिर द्वघणुकादिक्रमसे घटादिकी उत्पत्ति होती है। यह मत भी ठीक नहीं है। क्योंकि परमाण नित्य हैं, अतः उनमें कार्यको उत्पन्न करनेका परिणमन ही नहीं हो सकता। यदि परिणमन हो तो नित्यता नहीं हो सकती। फिर परमाणुओंसे भिन्न किसी स्वतन्त्र अवयवीरूप कार्यकी उपलब्धि भी नहीं होती। परमाणुओंमें पृथिवीस्व आदि जातिभेदकी कल्पना भी प्रमाणसिद्ध नहीं है। क्योंकि भिन्नजातीय चन्द्रकान्तमणिसे जलकी, जल
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