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________________ ३२८ तत्त्वार्थवार्तिक [१॥३१-३२ नहीं है जब कि क्षायोपशमिक मति आदि चार ज्ञान सहायताकी अपेक्षा रखते हैं अतः केवलज्ञान अकेला ही होता है उसके साथ अन्य ज्ञान नहीं रह सकते । ८-१० प्रश्न-केवलज्ञान होनेपर अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानोंका अभाव नहीं होता, किन्तु वे दिनमें तारागणोंकी तरह विद्यमान रहकर भी अभिभूत हो जाते हैं और अपना कार्य नहीं करते ? उत्तर-केवलज्ञान चूंकि क्षायिक और परम विशुद्ध है अतः सकलज्ञानावरणका विनाश होनेपर केवलीमें ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होनेवाले ज्ञानोंकी संभावना कैसे हो सकती है ? सर्वशुद्धिकी प्राप्ति हो जाने पर लेशतः अशुद्धिकी कल्पना ही नहीं हो सकती। आगममें असंज्ञी पंचेन्द्रियसे अयोगकेवलि तक जो पंचेन्द्रिय गिनाए हैं वहां द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है ज्ञानावरणके क्षयोपशमरूप भावन्द्रियोंकी नही । य यदि भावेन्द्रियां विवक्षित होतीं तो ज्ञानावरणका सद्भाव होनेसे सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती। अतः एक आत्मामें दो ज्ञान मति और श्रत, तीन ज्ञान मति श्रत अवधि या मति श्रत मनःपर्यय, चार ज्ञान मति श्रुत अवधि और मनःपर्यय होंगे, पांच एक साथ नही होंगे। अथवा, एक शब्दको संख्यावाची मानकर अकेला मतिज्ञान भी एक हो सकता है क्योंकि जो अंगप्रविष्ट आदि रूप श्रुतज्ञान है वह हर एकको हो भी न भी हो। अथवा, संख्या असहाय और प्राधान्यवाची एक शब्दको मानकर अकेला असहाय और प्रधान केवलज्ञान एक होगा दो मति श्रुत आदि । मति श्रुत अवधि विपर्यय भी होते हैं मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥३१॥ च शब्द समुच्चयार्थक है। अर्थात् मति श्रुत और अवधि मिथ्या भी होते हैं और सम्यक् भी। १-३ मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यादर्शनके साथ रहनेके कारण इन ज्ञानोंमें मिथ्यात्व आ जाता है जैसे कड़वी तूमरीमें रखा हुआ दूध कडुआ हो जाता है उसी तरह मिथ्यादृष्टिरूप आधार-दोषसे ज्ञानमें मिथ्यात्व आ जाता है। यह आशंका उचित नहीं है कि 'मणि सुवर्ण आदि मलस्थानमें गिरकर भी जैसे अपने स्वभावको नहीं छोड़ते वैसे ज्ञानको भी नहीं छोड़ना चाहिए'; क्योंकि पारिणामिक अर्थात् परिणमन करानेवालेकी शक्तिके अनुसार वस्तुओंमें परिणमन होता है । कडुवी तूंबड़ीके समान मिथ्यादर्शनमें ज्ञान दूधको बिगाड़नेकी शक्ति है। यद्यपि मलस्थानसे मणि आदिमें बिगाड़ नहीं होता पर अन्य धातु आदिके सम्बन्धसे सुवर्ण आदि भी विपरिणत हो ही सकते हैं। सम्यग्दर्शनके होते ही मत्यादिका मिथ्याज्ञानत्व हटकर उनमें सम्यक् ज्ञानत्व आ जाता है और मिथ्यादर्शनके उदयमें ये ही-मत्यज्ञान श्रुताज्ञान और विभङ्गावधि बन जाते हैं। "जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि मति श्रुत अवधिसे रूपादिको जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी, अतः ज्ञानोंमें मिथ्यादर्शनसे क्या विपर्यय हुआ ? मिथ्यादृष्टि भी रूपको रूप ही जानता है अन्यथा नहीं' इस आशंकाका परिहार करनेके लिए सूत्र कहते हैं सदसतोरविशेषायदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३२॥ ६१ सत्-अर्थात् प्रशस्ततत्त्वज्ञान, असत् अर्थात् अज्ञान इनमें मिथ्यादृष्टिको कोई विशेषताका भान नहीं होता वह कभी सत्को असत् और असत्को सत् कहता है, झोंकमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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