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________________ ३१२ तत्त्वार्थवार्तिक [ १११९ उष्ण होना चाहिए | अग्निकी तरह चक्षुमें चमकदार भासुर रूप भी होना चाहिए । पर न तो चक्षु उष्ण ही है और न भासुररूपवाली ही । अदृष्ट- अर्थात् कर्मके कारण ऐसे तेजोद्रव्य की कल्पना करना 'जिसमें न भासुर रूप हो और न उष्णस्पर्श' उचित नहीं है, क्योंकि अदृष्ट निष्क्रिय गुण है वह पदार्थके स्वाभाविक गुणोंको पलट नहीं सकता । बिल्ली आदि की आखोंको प्रकाशमान देखकर चक्षुको तेजोद्रव्य कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि पार्थिव आदि पुद्गल द्रव्यों में भी कारणवश चमक उत्पन्न हो जाती है जैसे कि पार्थिवमणि या जलीय बरफ आदि में । जो गतिमान् होता है वह समीपवर्ती और दूरवर्ती पदार्थोंसे एक साथ सम्बन्ध नहीं कर सकता जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय किन्तु चक्षु समीपवर्ती शाखा और दूरवर्ती चन्द्रको एक साथ जानता है, अतः गतिमान् से विलक्षण प्रकारका होनेसे चक्षु अप्राप्यकारी है । यदि चक्षु गतिमान् होकर प्राप्यकारी होता तो अँधियारी रात में दूरदेशवर्ती प्रकाशको देखने के समय उसे प्रकाशके पास रखे हुए पदार्थोंका तथा मध्यवर्ती पदार्थों का ज्ञान भी होना चाहिए था । आपके मतमें जब चक्षु स्वयं प्रकाशरूप है तब अन्य प्रकाशकी आवश्यकता उसे होनी ही नहीं चाहिए । किंच, यदि चक्षु प्राप्यकारी होता तो जैसे शब्द कानके भीतर सुनाई देता है, उसी तरह रूप भी आँखके भीतर ही दिखाई देना चाहिए। आंखके द्वारा जो अन्तरालका ग्रहण और अपने से बड़े पदार्थका अधिकरूपमें ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिए । यह मत कि 'इन्द्रियाँ बाहर जाकर पदार्थ से सम्बन्ध करके उन्हें जानती हैं अतः सान्तर और अधिक ग्रहण हो जाता है' ठीक नहीं है; क्योंकि इन्द्रियोंकी बहिर्वृत्ति अप्रसिद्ध है । चिकित्सा आदि तो शरीर देशमें ही किए जाते हैं बाहर नहीं । यदि इन्द्रियां बाहिर जाती हैं तो जिस समय देखना प्रारम्भ हुआ उसी समय आंखकी पलक बन्द कर लेने पर भी दिखाई देना चाहिए। कारणइन्द्रिय तो बाहर जा चुकी है । फिर, मनसे अधिष्ठित होकर ही इन्द्रियां स्वविषयमें व्यापार करती हैं, पर मन तो अन्तःकरण है, वह तो बाहिर जाकर इन्द्रियोंकी सहायता नहीं कर सकता, शरीर देशमें ही उसकी सहायता संभव है । यदि अणुरूप मन बाहर चला भी गया तो वह फैले हुए आंखोंकी किरणोंका नियन्त्रण कैसे कर सकता है ? अतः चक्षु शरीर देश में रहकर ही योग्यदेशस्थित पदार्थको जानता है । बौद्ध का मत है कि श्रोत्र भी चक्षुकी तरह अप्राप्यकारी है क्योंकि वह दूरवर्ती reast सुन लेता है । यह मत ठीक नहीं है क्योंकि श्रोत्रका दूरसे शब्दका सुनना असिद्ध है । वह तो नाककी तरह अपने देशमें आये हुए शब्द पुद्गलोंको सुनता है । शब्द वर्गणाएँ कानके भीतर पहुंचकर ही सुनाई देती हैं। यदि कान दूरवर्ती शब्दको सुनता है। तो उसे कान के भीतर घुसे हुए मच्छरका भिनभिनाना नहीं सुनाई देना चाहिए क्योंकि कोई भी इन्द्रिय अति निकटवर्ती और दूरवर्ती पदार्थोंको नहीं जान सकती । शब्दको आकाशका गुण मानना तो अत्यन्त असंगत है। क्योंकि अमूर्तद्रव्यके गुण इन्द्रियोंके विषय नहीं हो सकते जैसे कि आत्माके सुखादि गुण । श्रोत्रको प्राप्यकारी मानने पर भी 'अमुक देश अमुक दिशा आदिमें शब्द है' इस प्रकार दिग्देशविशिष्टताके ग्रहणका कोई विरोध नहीं है क्योंकि बेगवान् शब्दपरिणत पुद्गलोंके त्वरित और नियत देशादिसे आनेके कारण उस प्रकारका ज्ञान हो जाता है । शब्द पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे चारों ओर फैलकर श्रोताओंके कानों में प्रविष्ट होते हैं । कहीं कहीं प्रतिघात भी प्रतिकूल वायु और दीवाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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