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________________ १११९] हिन्दी-सार ६२ व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह कहलाता है और अव्यक्त ग्रहण व्यञ्जनावग्रह । जैसे नया मिट्टीका सकोरा पानीकी दो तीन बिन्दु डालने तक गीला नहीं होता पर लगातार जलबिन्दुओंके डालते रहनेपर धीरे धीरे गीला हो जाता है उसी तरह व्यक्त ग्रहणके पहिले का अव्यक्तज्ञान व्यञ्जनावग्रह है और व्यक्तग्रहण अर्थावग्रह । न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१६॥ १ चक्षु और मनके द्वारा व्यवञ्जनावग्रह नहीं होता क्योंकि चक्ष और मन योग्यदेशमें स्थित पदार्थको सम्बन्ध किये बिना ही ज्ञान करते हैं अत: जो भी ज्ञान होता है वह स्पष्ट ही होता है। २-३ मन अप्राप्त अर्थका विचार करता है यह तो निर्विवाद है और चक्षुकी अप्राप्यकारिता आगम और युक्तिसे सिद्ध है, स्वेच्छासे नहीं। आगममें बताया है कि-शब्द कानसे स्पृष्ट होकर सुना जाता है पर रूप अस्पृष्ट होकर दूरसे ही देखा जाता है। गन्ध रस और स्पर्श इन्द्रियोंसे जव स्पृष्ट होते हैं और विशिष्ट सम्बन्धको प्राप्त होते हैं तब जाने जाते हैं। ___ युक्तियोंसे भी चक्षुकी अप्राप्यकारिता प्रसिद्ध है । यथा-चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है क्योंकि वह अपने में लगे हुए अंजनको नहीं देख पाती। स्पर्शनेन्द्रिय प्राप्यकारी है तो वह अपनेसे छुए हुए किसी भी पदार्थके स्पर्शको जानती ही है । अतः मनकी तरह चक्षु अप्राप्यकारी है। 'चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि वह ढके हुए पदार्थको नहीं देखती जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है। क्योंकि चक्षु काँच अभ्रक स्फटिक आदिसे आवृत-ढके हुए पदार्थोको बराबर देखता है अतः पक्षमें ही अव्यापक होनेसे उक्त हेतु असिद्ध है; जैसे कि वनस्पतिमें चैतन्य सिद्ध करनेके लिए दिया जानेवाला 'स्वाप-सोना' हेतु, क्योंकि किन्हीं वनस्पतियोंमें पत्रसंकोच आदि चिह्नोंसे 'सोना' स्पष्ट जाना जाता है किन्हींका नहीं। चुम्बक तो दूरसे ही लोहेको खींचने के कारण अप्राप्यकारी है फिर भी वह ढके हुए लोहेको नहीं खींचता अतः संशय भी होता है कि आवृतको न देखनेके कारण चक्षु इन्द्रिय स्पर्शनकी तरह प्राप्यकारी है या चुम्बककी तरह अप्राप्यकारी । भौतिक होनेसे चक्षुको अग्निकी तरह प्राप्यकारी कहना भी ठीक नहीं है ; क्योंकि चुम्बक भौतिक होकर भी अप्राप्यकारी है । बाह्येन्द्रिय होनेसे स्पर्शनेन्द्रियकी तरह चक्षुको प्राप्यकारी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि बाहिर दिखनेवाली द्रव्येन्द्रिय तो अन्तरंग मुख्य भावेन्द्रियकी सहायक हैं, मात्र उनसे ज्ञान नहीं होता। स्पर्शनेन्द्रिय आदि में भी भीतरी भावेन्द्रिय ही की प्रधानता है । अतः यह हेतु कार्यकारी नहीं है। जिस प्रकार चुम्बक अप्राप्त लोहेको खींचता है परन्तु अतिदूरवर्ती अतीत अनागत या व्यवहित लोहेको नहीं खींचता उसी तरह चक्षु भी न व्यवहितको देखता है और न अतिदूरवर्तीको ही; क्योंकि पदार्थोकी शक्तियां मर्यादित हैं। अप्राप्यकारी माननेपर चक्षुके द्वारा संशय और विपर्ययज्ञानके अभावका दूषण तो प्राप्यकारी मानने पर भी बना रहता है । अतः संशय और विपर्यय तो इन्द्रिय-दोषसे दोनों ही अवस्थाओंमें होते हैं। 'चक्षु चूंकि तेजोद्रव्य है अतः इसके किरणें होती हैं और यह किरणोंके द्वारा पदार्यसे सम्बन्ध करके ही ज्ञान करता है जैसे कि अग्नि ।' यह अनुमान ठीक नहीं है। क्योंकि चक्षुको तेजोद्रव्य मानना ही गलत है। अग्नि तो गरम होती है अतः चक्षुइन्द्रियका स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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