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________________ १०१६] हिन्दी-सार ३०९ १६ बहु आदिका शब्दोंसे निर्देश इसलिए किया है कि इनके ज्ञान में ज्ञानावरण के क्षयोपशमकी विशुद्धि अत्यधिक अपेक्षित होती है। इन बारह प्रकारके अर्थोके अवग्रहादि प्रत्येक इन्द्रिय और मनके द्वारा होते हैं। जैसे श्रोत्रेन्द्रि यावरण और वीर्यान्तरायका प्रकृष्ट क्षयोपशम होनेपर तदनुकूल अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदयसे उन उन अङ्ग उपाङ्गोंके सद्भावसे कोई श्रोता एक साथ तत वितत धन सुषिर आदि बहुत शब्दोंको सुनता है। क्षयोपशमादिकी न्यूनतामें एक या अल्प शब्दको सुनता है। प्रकृष्ट क्षयोपशमादिसे ततादि शब्दोंके एक-दो-तीन संख्यात असंख्यात आदि प्रकारोंको ग्रहण कर बहुविध शब्दोंको जानता है । क्षयोपशमादिकी न्यूनतामें एक प्रकारके ही शब्दोंको सुनता है। क्षयोपशम की विशुद्धिमें क्षिप्र-शीघ्रतासे शब्दोंको सुनता है। क्षयोपशमकी न्यूनतामें अक्षिप्र-देरीसे शब्दको सुनता है। क्षयोपशमकी विशुद्धिमें अनिःसृत-पूरे वाक्यका उच्चारण न होनेपर भी उसका ज्ञान कर लेता है । निःसृत अर्थात् पूर्ण रूपसे उच्चारित शब्दका ज्ञान कर लेना। क्षयोपशमकी प्रकृष्टतामें एक भी शब्दका उच्चारण किए बिना अभिप्राय मात्रसे अनुक्त शब्दको जान लेता है। अथवा वीणा आदिके तारों के सम्हालते समय ही यह जान लेना कि 'इसके द्वारा यह राग बजाया जायगा' अनुक्त ज्ञान है। उक्त अर्थात् कहे गये शब्दको जानना । ध्रुव ग्रहणमें जैसा प्रथम समयमें ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है न कम और न अधिक, परन्तु अध्रुवग्रहण में क्षयोपशयकी विशुद्धि और अविशुद्धिके अनुसार कम और अधिक रूपसे ज्ञान होता है, कभी बहुत शब्दोंको जानना हो तो कभी एकको, कभी क्षिप्र तो कभी देरीसे, कभी नि:सृत तो कभी अनिःसृत आदि । प्रश्न-बहु और बहुविधमें क्या अन्तर है ? उत्तर-जैसे कोई बहुत शास्त्रोंका सामान्यरूपसे व्याख्यान करता है और दूसरा उन्हीं शास्त्रोंकी अनेकविध व्याख्याएँ करता है, उसी तरह ततादि शब्दोंका सामान्य ग्रहण बहुग्रहण है तथा उन्हींका अनेकगुणी विशेषताओंसे ज्ञान करना बहुविध ग्रहण है । प्रश्न-उक्त और निःसृतमें क्या विशेषता है ? उत्तर-परोपदेश पूर्वक शब्दोंका ग्रहण उक्त है और अपने आप ज्ञान करना नि.सृत है। इसी प्रकार चक्षु इन्द्रियके द्वारा भी बह्वादि बारह प्रकारके अर्थोका ग्रहण होता है। पंचरंगी साड़ीके एक छोरके रंगोंको देखकर पूरी साड़ीके रंगोंका ज्ञान कर लेना अनिःसृत ग्रहण है। सफेद काले आदि रंगोंके मिश्रणसे जो रंग तैयार होते हैं उनके सम्बन्धमें बिना कहे हुए अभिप्रायमात्रसे यह जान लेना कि 'आप इन दोनों रंगोंके मिश्रणसे यह रंग बनायेंगे' अनुक्त रूप ग्रहण है । अथवा अन्य देशमें रखे हुए पंचरंगे वस्त्रके सम्बन्धमें अभिप्रायमात्रसे यह जान लेना कि आप इन रंगोंका कथन करेंगे अनुक्त ग्रहण है। दूसरेके अभिप्रायके बिना स्वयं अपने क्षयोपशमानुसार रूपको जानना उक्त ग्रहण है। अन्य बहु आदि विकल्पोंकी व्याख्या सरल है। इसी तरह प्राणादि इन्द्रियोंमें भी लगा लेना चाहिये। ६१७ प्रश्न-स्पर्शन रसना घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी अर्थात् पदार्थोसे सम्बद्ध होकर ज्ञान करनेवाली हैं अतः इनसे अनिःसृत और अनुक्त ज्ञान नहीं हो सकते? उत्तर-इन इन्द्रियोंसे किसी न किसी रूपमें पदार्थका सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, जैसे कि चींटीको सुदूरवर्ती गुड़ आदिके रस और गन्धका ज्ञान सूक्ष्म परमाणुओंके सम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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