SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ तत्त्वार्थवार्तिक [१।१६ अवग्रहादि किन अर्थोके होते हैं ? बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तभ्रु वाणां सेतराणाम् ॥१६॥ बहु एक बहुविध एकविध क्षिप्र अक्षिप्र अनिःसृत निःसृत अनुक्त उक्त ध्रुव और अध्रुव इन बारह प्रकारके अर्थों के अवग्रह आदि होते हैं। ११ बहु शब्द संख्यावाची भी है और परिमाणवाचक भी। जैसे एक दो बहुत आदि, बहुत दाल बहुत भात आदि । २-८ प्रश्न-जब एक ज्ञान एक ही अर्थको ग्रहण करता है तब बहु आदि विषयक अवग्रह नहीं हो सकता ? उत्तर-यदि एक ज्ञान एक ही अर्थको विषय करता है तो उससे सदा एक ही प्रत्यय होगा। नगर वन सेना आदि बहुविषयक ज्ञान नहीं हो सकेंगे। नगर आदि संज्ञाएँ और व्यवहार समुदायविषयक है। अतः समुदायविषयक समस्त व्यवहारोंका लोप ही हो जायगा। एकार्थग्राहि ज्ञानपक्षमें यदि पूर्वज्ञानके कालमें ही उत्तर ज्ञानकी उत्पत्ति हो जाती है तो 'एक मन होनेसे एक अर्थविषयक ही ज्ञान होता है' इस सिद्धान्तका विरोध हो जायगा । जैसे एक ही मन अनेक ज्ञानोंको उत्पन्न कर सकता है उसी तरह एक ज्ञानको अनेक अर्थोको विषय करनेवाला मानने में क्या आपत्ति है ? यदि अनेक ज्ञानोंको एककालीन मानकर अनेकार्थों की उपलब्धि एक साथ की जाती है ; तो 'एक का ज्ञान एक ही अर्थको जानता है' इस सिद्धान्तका खंडन हो जायगा। यदि पूर्व ज्ञानके निवृत्त होनेपर उत्तर ज्ञानकी उत्पत्ति मानी जाती है तो सदा एकार्थ विषयक ज्ञानकी सत्ता रहनेसे 'यह इससे छोटा है, बड़ा है' इत्यादि आपेक्षिक , व्यवहारोंका लोप हो जायगा। एकार्थनाहिज्ञानवादमें मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियोंमें होनेवाले ह्रस्व दीर्घ आदि समस्त आपेक्षिक व्यवहारोंका लोप हो जायगा क्योंकि भी ज्ञान दो को नहीं जानेगा। इस पक्षमें उभयार्थग्राही संशयज्ञान नहीं हो सकेगा क्योंकि स्थाण विषयक ज्ञान पुरुषको नहीं जानेगा तथा न पुरुष विषयक ज्ञान स्थाणुको । इस वादमें किसी भी इष्ट अर्थकी सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। जैसे कोई चित्रकार पूर्ण कलशका चित्र बना रहा है तो उसके प्रतिक्षणवर्ती ज्ञान पूर्वापरका अनुसन्धान तो कर ही नहीं सकेंगे, ऐसी दशामें पूर्णकलशका परिपूर्ण चित्र नहीं बन सकेगा। इस पक्षमें दो तीन आदि बहसंख्या-विषयक प्रत्यय नहीं हो सकेंगे; क्योंकि कोई भी ज्ञान दो तीन आदि सम होंको जान ही नही सकेगा । सन्तान या संस्कारकी कल्पनामें दो प्रश्न होते हैं कि वे ज्ञानजातीय होंगे या अज्ञानजातीय ? अज्ञानजातीयसे तो अपना कोई प्रयोजन सिद्ध होगा ही नहीं । ज्ञानजातीय होकर यदि इनने भी एक ही अर्थको जाना तो समस्त दूषण ज्योंके त्यों बने रहेंगे। यदि अनेकार्थको जानते हैं तो एकार्थवाली प्रतिज्ञा की हानि हो जायगी। ६९-१५ विध शब्द प्रकारार्थक है, बहुविध अर्थात् बहुत प्रकारवाले पदार्थ । क्षिप्र अर्थात् शीघ्रतासे । अनिःसृतका अर्थ है वस्तुके कुछ भागोंका दिखना, पूरी वस्तुका न दिखना । अनुक्तका अर्थ है कहने के बिना ही अभिप्रायसे जान लेना। ध्रुव अर्थात् यथार्थ ग्रहण । सेतरका अर्थ है इनसे उलटे पदार्थ, अर्थात् अल्प अल्पविध चिर निःसृत उक्त और अध्रुव । 'इन सबके अवग्रहादि होते हैं। इस प्रकारका कर्मनिर्देश अवग्रह आदि शानोंकी अपेक्षा समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy