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________________ २९६ तत्त्वार्थवार्तिक [१९ संकल्प अभिमान और अध्यवसायात्मक व्यापाररूप बुद्धि प्रकृतितत्त्व है पुरुष इससे भिन्न नित्य शुद्ध और अविकारी है। बुद्धि ऐसे पुरुषका करण कैसे बन सकती है ? क्रियापरिणत देवदत्तको ही करणकी आवश्यकता लोकमें प्रसिद्ध है। इसी तरह ज्ञान कर्तृसाधन नहीं बन सकता। करणरूपसे प्रसिद्ध तलवार आदि की तीक्ष्णता आदि गुणोंकी प्रशंसामें 'तलवारने छेद दिया' इस प्रकारका कर्तृत्वधर्मका अध्यारोपण करके कर्तृसाधन प्रयोग होता है किन्तु यहाँ जब ज्ञानकी करणरूपसे सिद्धि ही नहीं है तब इसमें कर्तृत्व धर्मका आरोप करके करण प्रयोग कैसे हो सकता है ? . ज्ञान भावसाधन' भी नहीं हो सकता । जिन चावल आदि पदार्थोंमें स्वतः विक्रियास्वभाव है उन्हींमें पचनक्रिया देखकर 'पचनं पाकः' यह क्रियाप्रधान भावप्रयोग होता है आकाश आदिमें नहीं । अतः परिणमनरहित अविकारी ज्ञानमें क्रियाप्रधान भावप्रयोग नहीं हो सकता । किंच, ज्ञानको प्रमाण माना जाता है । अतः जब तक उससे कोई अन्य अवबोध या फलात्मक ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा तब तक उस ज्ञानका 'ज्ञातिनिम्' ऐसा भावसाधन निर्देश नहीं हो सकता। बौद्धोंका यह कहना उचित नहीं है कि-'अधिगम भिन्न पदार्थ नहीं है अतः फलमें ही प्रमाणताका आरोप कर लेना चाहिए' क्योंकि मुख्य वस्तुके रहनेपर ही अन्यत्र आरोपकल्पना होती है, किन्तु यहां मुख्य प्रमाण पृथक् सिद्ध ही नहीं है। एक ही ज्ञानमें आकार भेदसे प्रमाण-फल भावकी कल्पना भी उचित नहीं है; क्योंकि आकार और आकारवान्में भेद और अभेद पक्षमें अनेक दोष आते हैं। निरंश तत्वमें आकारभेदकी कल्पना भी उचित नहीं है । ज्ञानवादमें बाह्य वस्तुओंके आकारके अभावमें अन्तरंग ज्ञानमें आकार आ ही नहीं सकता। जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मात्मक है। अतः पर्यायभेदसे एक ही शान कर्तृ करण और भाव साधन बन सकता है। ६१२ मति आदि प्रत्येकमें 'शान'का अन्वय कर लेना चाहिए। 'द्वन्द्व समासमें आदि या अन्त में प्रयुक्त शब्दका सबके साथ अन्वय होता है' यह व्याकरणशास्त्रका प्रसिद्ध नियम है। केवलानि ज्ञानम् में सामानाधिकरण्य होनेपर भी चूंकि 'ज्ञान' शब्द उपात्तसंख्यक है अतः एकवचन ही रहा है बहुवचन नहीं हुआ। ६१३ मति शब्द घिसंज्ञक है अल्पाक्षर है और मतिज्ञान अल्पविषयक है अत: उसका सर्वप्रथम ग्रहण किया गया है । ६१४-१६ चूंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अतः मतिके बाद श्रुतका ग्रहण किया है। मति और श्रुतका विषय बराबर है और नारद और पर्वतकी तरह दोनों सहभावी है अतः दोनोंका पास-पास निर्देश हुआ है । १७-२० तीनों प्रत्यक्षोंमें अवधिज्ञान सबसे कम विशुद्धिवाला है अतः इसका सर्वप्रथम निर्देश है इससे विशुद्धतर होनेके कारण संयमी जीवोंके ही होनेवाले मनःपर्ययका ग्रहण किया है। सबके अन्तमें केवलज्ञानका निर्देश है क्योंकि इससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है । केवल ज्ञान अन्य सब ज्ञानोंको जान सकता है पर केवलज्ञानको जाननेवाला उससे बड़ा दूसरा ज्ञान नहीं है। चूंकि केवलज्ञानके साथ ही निर्वाण होता है न कि भायोपशयिक मति आदि ज्ञानोंके साथ । इसलिए भी इसका अन्तमें निर्देश किया है। ६२१-२५ प्रश्न-चूंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सहचारी है और एक व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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