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हिन्दी-सार
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नहीं है क्योंकि सन्तान अवास्तविक है । तत्त्वको सर्वथा अवाच्य कहना तो नितान्त अनुचित है क्योंकि अवाच्य पक्षमें उसे 'अवाच्य' शब्दसे भी नहीं कह सकेंगे, अतः तत्त्व प्रतिपत्तिके उपायका भी लोप हो जायगा । किंच, कर्तृसाधन और करणसाधन दोनोंको जाननेवाला एक व्यक्ति ही यह भेद कर सकता है कि 'ज्ञान कर्तृसाधन है, करणसाधन नहीं है' जब क्षणिकवादी के यहाँ प्रत्येक ज्ञान एक अर्थको विषय करनेवाला और क्षणिक है तब निर्णय ही नहीं हो सकेगा । जो व्यक्ति सफेद और कालेको नहीं जानता वह 'यह काला है सफेद नहीं' यह विधिनिषेध कर ही नहीं सकता ।
6 ११ आत्माका अस्तित्व मानकर भी यदि उसे निरतिशय अविकारी नित्य माना जाता है तो भी ज्ञानमें करणसाधनता आदि सिद्ध नहीं हो सकते; क्योंकि अपरिणामी आत्मासे ज्ञान आदि परिणामोंका सम्बन्ध ही नहीं बन पाता । जब आत्मा एक स्वतन्त्र पदार्थ है तथा आत्मा इन्द्रिय मन और अर्थके सन्निकर्षसे उत्पन्न ज्ञान भी स्वतन्त्र ; तब ज्ञान आत्माका करण कैसे बन सकता है क्योंकि दोनों निरपेक्ष होनेसे परस्पर सम्बन्धी नहीं हो सकते । जिस प्रकार छेदनेवाले देवदत्तसे करणभूत फरसा कठोर तीक्ष्ण आदि रूपसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है उस तरह ज्ञानका पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे उसे करण बनाया जाय । फरसा भी तब करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ीके भीतर घुसने रूप व्यापारकी अपेक्षा रखता है, किन्तु ज्ञान में कर्ता द्वारा की जानेवाली कोई क्रिया नहीं दिखाई देती जिसकी अपेक्षा रखनेके कारण उसे करण कहा जाय । स्वयं छेदनक्रियामें परिणत देवदत्त अपनी सहायता के लिए फरसेको लेता है और इसीलिए फरसा करण कहलाता है पर यहाँ आत्मा स्वयं ज्ञानक्रिया रूपसे परिणति ही नहीं करता । क्योंकि ज्ञान स्वतन्त्र पदार्थ है । यदि ज्ञान आत्मासे भिन्न है तो आत्मा घटादि पदार्थोंकी तरह अज्ञ अर्थात् ज्ञानशून्य जड़ हो जायगा । दंडे के सम्बन्ध से दंडीकी तरह सम्बन्ध कल्पना उचित नहीं है क्योंकि जब आत्मा स्वयं ज्ञानस्वभाव नहीं है तब ज्ञानका सम्बन्ध आत्मासे ही हो मन या इन्द्रियसे नहीं, यह प्रतिनियम ही नहीं बन सकता । फिर, दण्ड और दण्डी दोनों अपने अपने लक्षणोंसे पृथक् सिद्ध हैं अतः उनका सम्बन्ध तो समझ में आता है पर आत्मासे भिन्न ज्ञानकी या ज्ञानशून्य आत्माकी जब स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं होती तब उनमें दण्डदण्डिकी तरह सम्बन्ध कैसे बन सकता है ? ज्ञानके उत्पन्न होने पर भी यदि आत्मामें हिताहित विचाररूप परिणमन नहीं होता तो ज्ञान आत्माका विशेषण कैसे बन सकता है ? दो अंधोंके संयोगसे जैसे रूप दर्शनकी शक्ति नहीं आ सकती वसे ही ज्ञानशून्य आत्मा और ज्ञानके सम्बन्धसे 'ज्ञ' व्यवहार नहीं' हो सकेगा ।
किंच, यदि 'जिनके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान' ऐसा निर्वचन किया जाता है तो इन्द्रिय और मनमें ज्ञानत्वका प्रसंग आता है । क्योंकि इनके द्वारा भी जाना जाता है । किंच, आत्मा सर्वगत होनेसे क्रियाशून्य है और ज्ञान गुण होनेसे क्रियारहित है क्योंकि क्रियावाला द्रव्य ही होता है, अतः दोनों क्रियारहित पदार्थोंमें न तो कर्तृत्व बन सकता है और न करणत्व ही ।
सांख्य पुरुषको प्रकृति से भिन्न नित्य शुद्ध और निर्विकार कहते हैं । इनके मत में भी ज्ञान करण नहीं हो सकता । इन्द्रिय मन अहङ्कार और महान् तत्त्वोंके आलोचन
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