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तत्त्वार्थवातिक का ही ग्रहण हो सकता। यदि दो की विवक्षा होती तो 'पूर्वयोः' ऐसा द्विवचनान्त पद देना चाहिए था। यदि एकवचनके द्वारा भी सामान्य रूपसे दोका ग्रहण किया जाता है तो 'भजनीयमुत्तरम्' यहां भी 'उत्तरम्' इस एकवचन पदके द्वारा ज्ञान और चारित्र दोका ग्रहण होनेसे पूर्वोक्त दोष बना ही रहता है। अथवा, क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेपर क्षायिक ज्ञान भजनीय है-हो अथवा न हो' यह व्याख्या कर लेनी चाहिए । अथवा, 'सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनोंकी एक साथ उत्पत्ति होती है अतः नारद और पर्वतके साहचर्षकी तरह एकके ग्रहणसे दूसरेका भी ग्रहण हो ही जाता है अतः पूर्व अर्थात् सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञानका लाभ होनेपर भी उत्तर अर्थात् चारित्र भजनीय है' यह अर्थ भी किया जा सकता है । सम्यग्दर्शनका स्वरूप--
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ तत्त्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।
६१-२ सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द (निपात) है। यह प्रशस्त रूप गति जाति कुल आयु विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयसका प्रधान कारण होता है। 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस प्रमाणके अनुसार सम्यक् शब्दका प्रयोग इष्टार्थ और तत्त्व अर्थमें होता है अतः इसका प्रशंसा अर्थ उचित नहीं है, इस शंकाका समाधान यह है कि निपात शब्दोंके अनेक अर्थ होते हैं, अतः प्रशंसा अर्थ मानने में कोई विरोध नहीं है। अथवा सम्यक्का अर्थ 'तत्त्व' भी किया जा सकता है जिसका अर्थ होगा 'तत्त्वदर्शन'। अथवा, यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है । इसका अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जाननेवाला।
दर्शन शब्द करणसांधन कर्तृसाधन और भावसाधन तीनों रूप है।
३-४ प्रश्न-दर्शन दृशि धातुसे बना है और दृशि धातुका अर्थ देखना है । अतः दर्शनका श्रद्धान अर्थ नहीं हो सकता ? उत्तर-धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए उनमेंसे श्रद्धान अर्थ भी ले लिया जायगा। चूंकि यहां मोक्षका प्रकरण है अतः दर्शनका देखना अर्थ इष्ट नहीं है किन्तु तत्त्वश्रद्धान अर्थ ही इष्ट है।
१५-६ तत्त्व शब्द भावसामान्यका वाचक है। 'तत्' यह सर्वनाम है जो भावसामान्यवाची है। अतः तत्त्व शब्दका स्पष्ट अर्थ है-जो पदार्थ जिस रूपसे है उसका उसी रूप होना। अर्थ माने जो जाना जाय । तत्त्वार्थ माने जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसका उसी रूपसे ग्रहण । तात्पर्य यह कि जिसके होने पर तत्त्वार्थ-अर्थात् वस्तुका यथार्थ ग्रहण हो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं।
-६७-८ जिस प्रकार दर्शन शब्द करण भाव और कर्म तीनों साधनोंमें निष्पन्न होता है उसी तरह श्रद्धान शब्द भी 'जिसके द्वारा श्रद्धान हो' 'जो श्रद्धान किया जाय' और 'श्रद्धामात्र' इन तीनों साधनोंमें निष्पन्न होता है। यह श्रद्धान आत्माकी पर्याय है। आत्मा ही श्रद्धान रूपसे परिणत होता है।
६९-१६ प्रश्न-मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंमें भी 'सम्यक्त्व' नामकी कर्मप्रकृति है और 'निर्देशस्वामित्व' आदि सूत्रके विवरणसे भी ज्ञात होता है कि यहां सम्यक्त्व कर्म प्रकृति का सम्यग्दर्शनसे ग्रहण है अतः सम्यक्त्वको कर्मपुद्गल रूप मानना चाहिए ? उत्तर-यहां मोक्षके कारणोंका प्रकरण है, अतः उपादानभूत आत्मपरिणाम ही विवक्षित है । औपशमिक
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