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११] हिन्दी-सार
२७५ ज्ञान और चारित्रमें अर्थभेद भी है-ज्ञान जाननेको कहते हैं तथा चारित्र कर्मबन्धकी कारण क्रियाओंकी निवृत्तिको। फिर यह कोई नियम नहीं है कि जिनमें कालभेद न हो उनमें अर्थभेद भी न हो। देखो, जिस समय देवदत्तका जन्म होता है उसी समय मनुष्यगति पंचेन्द्रियजाति शरीर वर्ण गन्ध आदिका भी उदय होता है पर सबके अर्थ जुदे जुदे हैं। इसी तरह ज्ञान और चारित्रके भी अर्थ भिन्न भिन्न हैं ।
___ यह पहिले कह भी चुके हैं कि द्रव्यार्थिक दृष्टिसे ज्ञानादिकमें एकत्व है तथा पर्यायार्थिक दृष्टिसे अनेकत्व।
६५-६६ प्रश्न-यदि दर्शन ज्ञान आदिमें लक्षण भेद है तो ये मिलकर एक मार्ग नहीं हो सकते, इन्हें तीन मार्ग मानना चाहिए ? उत्तर-यद्यपि इनमें लक्षणभेद है फिर भी ये मिलकर एक ऐसी आत्मज्योति उत्पन्न करते हैं जो अखण्डभावसे एक मार्ग बन जाती है जैसे कि दीपक बत्ती तेल आदि विलक्षण पदार्थ मिलकर एक दीपक बन जाते हैं। इसमें किसी वादीको विवाद भी नहीं है। सांख्य प्रसादलाघव-शोषताप-आवरणसादन रूपसे भिन्न लक्षणवाले सत्त्व, रज और तम इन तीनोंकी साम्यावस्थाको एक प्रधान तत्त्व मानते हैं । बौद्ध कक्खडकर्कश द्रव उष्ण आदि रूपसे भिन्न लक्षणवाले पथिवी, जल, तेज और वाय इन चार भूतों तथा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इन चार भौतिकोंके समदायको एक रूपपरमाण मानते हैं। इसी तरह रागादि धर्म और प्रमाण प्रमेय अधिगम आदि धर्मोंका समावेश एक ही विज्ञानमें माना जाता है । नैयायिकादि भिन्न रंगवाले सूतसे एक चित्रपट मान लेते हैं। उसी तरह भिन्न लक्षणवाले सम्यग्दर्शनादि तीनों एक मार्ग बन सकते हैं।
६६७-६८ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें पूर्वकी प्राप्ति होनेपर उत्तरकी प्राप्ति भजनीय है अर्थात् हो भी न भी हो। किन्तु उत्तरकी प्राप्तिमें पूर्वका लाभ निश्चित है-वह होगा ही। जैसे जिसे सम्यक्चारित्र होगा उसे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन होंगे ही पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्णसम्यग्ज्ञान और चारित्र हो भी और न भी हो।
६६९-७१ शंका-पूर्व सम्यग्दर्शनके लाभमें उत्तर ज्ञानका लाभ भजनीय है अर्थात् हो भी न भी हो यह नियम उचित नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन होनेपर भी ज्ञान यदि नहीं होता तो अज्ञानपूर्वक श्रद्धानका प्रसङ्ग होता है। फिर जब तक स्वतत्त्वका ज्ञान नहीं किया गया तब तक उसका श्रद्धान कैसा? जैसे कि अज्ञात फलके सम्बन्धमें यह विधान नहीं किया जा सकता कि 'इस फलके रससे यह आरोग्य आदि होता है उसी तरह अज्ञात तत्त्वका श्रद्धान भी नहीं किया जा सकता। ज्ञान तो आत्माका स्वभाव है अतः वह न्यूनाधिक रूपमें सदा स्थायी गुण है उसे कभी भी भजनीय नहीं कहा जा सकता अन्यथा आत्माका ही अभाव हो जायगा, क्योंकि सम्यग्दर्शन होनेपर मिथ्याज्ञानकी तो निवृत्ति हो जायगी और सम्यग्ज्ञान नियमतः होगा नहीं, अतः सर्वथा ज्ञानाभावसे आत्माका ही अभाव हो जायगा।
७२ समाधान-पूर्ण ज्ञानको भजनीय कहा है न कि ज्ञानसामान्यको। ज्ञानकी पूर्णता श्रुतकेवली और केवलीके होती है। सम्यग्दर्शन होनेपर पूर्ण द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान अवश्य हो ही जायगा यह नियम नहीं है। इसी तरह चारित्र भी यथासंभव देशसंयतको सकलसंयम यथाख्यात आदि भजनीय हैं।
६७३ 'पूर्व-अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके लाभमें चारित्र भजनीय है' यह अर्थ करना उचित नहीं है क्योंकि वार्तिकमें 'पूर्वस्य' यह एक वचनपद है अतः इससे एक
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