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२६६ तत्त्वार्थवार्तिक
[१२१ धुरा ही अनेक प्रकारकी शारीरिक मानसिक आदि वेदनाओंरूपी घटीयन्त्रको घुमाता रहता है । कर्मोदयकी निवृत्ति होनेपर चतुर्गतिका चक्र रुक जाता है और उसके रुकनेसे संसाररूपी घटीयन्त्रका परिचलन समाप्त हो जाता है, इसीका नाम मोक्ष है। इस तरह साधारण अनुमानसे मोक्षकी सिद्धि हो जाती है । समस्त शिष्टवादी अप्रत्यक्ष होनेपर भी मोक्षका सद्भाव स्वीकार करते हैं और उसके मार्गका अन्वेषण करते हैं। जिस प्रकार भावी सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण आदि प्रत्यक्षसिद्ध नहीं हैं फिर भी आगमसे उनका यथार्थबोध कर लिया जाता है उसी प्रकार मोक्ष भी आगमसे सिद्ध हो जाता है। यदि प्रत्यक्ष सिद्ध न होनेके कारण मोक्षका निषेध किया जाता है तो सभीको स्वसिद्धान्तविरोध होगा, क्योंकि सभी वादी कोई न कोई अप्रत्यक्ष पदार्थ मानते ही हैं।
१४-१६ प्रश्न-बन्धके कारणोंको पहिले बताना चाहिए था तभी मोक्षके कारणोंका वर्णन सुसंगत हो सकता है ? उत्तर-आगे आठवें अध्यायमें मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय और योगको बधका कारण बताया है। यद्यपि बन्धपूर्वक मोक्ष होता है अतः पहिले बन्धकारणोंका निर्देश करना उचित था फिर भी मोक्षमार्गका निर्देश आश्वासन के लिए किया है। जैसे जेलमें पड़ा हुआ व्यक्ति बन्धनके कारणोंको सुनकर डर जाता है और हताश हो जाता है पर यदि उसे मुक्तिका उपाय बताया जाता है तो उसे आश्वासन मिलता है और वह आशान्वित हो बन्धनमुक्तिका प्रयास करता है उसी तरह अनादि कर्मबन्धनबद्ध प्राणी प्रथम ही बन्धके कारणोंको सुनकर डर न जाय और मोक्षके कारणोंको सुनकर आश्वासनको प्राप्त हो इस उद्देश्यसे मोक्षमार्गका निर्देश सर्वप्रथम किया है।
१७ अथवा, अन्यवादियोंके द्वारा कहे गए ज्ञानमात्र और ज्ञान तथा चारित्र इन एक और दो मोक्षकारणोंका निषेध करनेके लिए जनसम्मत सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनोंको ही मोक्षमार्ग बताया गया है एक या दो को नहीं।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनोंका सुमेल रूप रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है।
कोई व्याख्याकार कहते हैं कि-मोक्षके कारणके निर्देश द्वारा शास्त्रानुपूर्वी रचनेके लिए तथा शिष्यकी शक्तिके अनुसार सिद्धान्तप्रक्रिया बतानेके लिए इस सूत्रकी रचना हुई है। परन्तु यहां कोई शिष्याचार्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है किन्तु संसार-सागरमें डूबते हुए अनेक प्राणियोंके उद्धारकी पुण्य भावनासे मोक्षमार्गका निरूपण करनेवाले इस सूत्रकी रचना
की गई है।
१ दर्शनमोह कर्मके उपशम क्षय या क्षयोपशम रूप अन्तरङ्ग कारणसे होनेवाले तत्त्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस अन्तरङ्ग कारणकी पूर्णता कहीं निसर्गसे होती है और कहीं अधिगम अर्थात् परोपदेशसे होती है। इसी कारणसे सम्यग्दर्शन भी निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है।
६२ प्रमाण और नयोंके द्वारा जीवादितत्त्वोंका संशय विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
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