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________________ [१४] मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ पुष्कराध संज्ञाका कारण १६७ ३६१ चतुर्थ अध्याय मानुषोत्तरके पूर्व ही मनुष्योंका देवोंके चार भेद २११ ४०१ निवास है १९७ देव शब्दका अर्थ २११ ४०१ किस प्रकारके मनुष्य मनुष्यलोकके निकाय शब्दका अर्थ बाहर पाये जाते हैं इस बातका आदिके तीन निकायों में लेश्या विचार २१" ४०१ विचार १६८ ३६१ भवनवासी श्रादि निकायोंके अवान्तर नन्दीश्वर द्वीपका वर्णन १६८ ३६१ भेद २१२ ४.. कुण्डलवर द्वीपका वर्णन १६६ ३६१ प्रत्येक अवान्तर भेदके इन्द्र आदि मनुष्योंके दो भेद आर्य और म्लेच्छ २०० ३९२ बस भेद २१२ ४०१ श्रार्योंके भेद व उनके लक्षण २०० ३६२ इन्द्र आदिका स्वरूप २१२ ४०१ अनृद्धिप्राप्त अायोंके भेद-प्रभेद व व्यन्तर और ज्योतिक निकायोंमें उनका स्वरूप २०० ३६२ त्रायविंश तथा लोकपालको ऋद्धिप्राप्त आयों के भेद-प्रभेद व लोद कर भाउ भेद २१३ ४.२ उनका स्वरूप २०१ ३६२ भवनवासी और म्यन्तर देवोंके अवाम्लेच्छोंके भेद व उनका वर्णन न्तर प्रत्येक भेदमें दो दो कौन-कौन क्षेत्र कर्मभूमि हैं इसका इन्द्रका कथन २१३ ४०२ कथन २०४ ३९५ भवनवासी और व्यन्तर इन्द्रोंके नाम २१४ ४०२ कर्म शब्दका अर्थ २०४ ३६५ ऐशान करूपतकके देवोंमें प्रवीचार मनुष्योंकी उस्कृष्ट तथा जघन्य प्रायु का विचार २१४ ४०२ का वर्णन २०५ ३५५शेष कल्पवासी देवों में प्रवीचारका प्रमाणके भेद २०५ ३६६ विचार २१४ ४०३ लौकिक प्रमाणके भेद व उनका कल्पातीत देवों में अप्रवीचारका कथन २१५ १२० विशेष विचार २०६ ३६६ भवनवासी देवोंके भेद २१६ ४०३ लोकोत्तर प्रमाणके भेद व उनका भवनवासी शब्दका अर्थ २१६ ४०३ विशेष विचार असुर संज्ञाका कारण युद्ध नहीं है २१६ ४०३ द्रव्य प्रमाणके भेद व उनका विचार २०७ ३६६ कुमार शब्दकी सार्थकता २१६ ४०४ संख्या प्रमाणके भेद व उनका विशेष भवनवासी देवोंका निवासस्थान व विचार २०६ ३६६ उनके वैभवका वर्णन २१६ ४०४ उपमान प्रमाणके भेद व उनका व्यन्तर देवोंके भेद २१७ ४०४ विशेष विचार २०७ ३६८ व्यन्तर शब्दका अर्थ २१७ ४०४ पल्यके भेद तथा उनका वर्णन २०७ ३६८ किन्नर आदि संज्ञाओंका कथन २१७ ४०४ क्षेत्र प्रमाणके भेद २०८ ३६६ व्यन्तर देवोंका निवासस्थान २१७ ४०५ काल प्रमाणका वर्णन २०६ ३६६ ज्योतिष्क देवोंके भेद २१८ १०५ भाव प्रमाणके भेद २०६ ३६९ ज्योतिष्क शब्दका अर्थ २१८ ४०५ तिर्यग्योनिजोंकी उस्कृष्ट और जवन्य सूर्य आदि शब्दोंका पौर्वापर्य विचार २१८ ४० मायु २०९ ३९९ ज्योतिष्क देवोंका निवास स्थान २१६ ४०५ तिर्यग्योनि शब्दका अर्थ २०६ ३६१ ज्योतिष्कोंके विमान आदि वैभवका तिर्यश्चोंके भेद तथा उनकी उत्कृष्ट वर्णन २१६ ४०५ भवस्थितिका वर्णन २०९ ३९६ मनुष्यलोक में ज्योतिषकोंका गमन विचार २२० १०६ भवस्थिति और कायस्थितिकी विशषता २१० ४०० ज्योतिष्क विमानोंके गमन करनेका तिर्यञ्चोंकी कायस्थिति २१० ४०० कारण २२० ४०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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