SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतुल्य की खोज में ६३ अतः आपके जीवन का ध्येय क्या है? एक दिन से दूसरे दिन जीते हुए जीवन के साथ पहचान बनाकर प्रतिदिन सभी के प्रति प्रेमभाव के साथ रहना तथा मन में किसी के प्रति कुविचार नहीं रखना। आपके लिए कोई भी मार्ग अवरुद्ध नहीं है। आपके जीवन में नूतन सृजन होता रहेगा । जब आप सोचेंगे, 'इस अनुभव को पीछे छोड़कर मैं उत्कर्ष के मार्ग पर अग्रसर रहूँगा', तब आपकी विवशता एवं जल्दबाज़ी दूर हो जाएगी। आप प्रतिदिन सुंदर रिश्ते कायम करके बढ़ते जाएँगे, स्वयं के साथ एवं संपूर्ण चराचर के साथ। चिंतन के बिंदु मुझे यह देखने दो कि मैं 'आत्मा' हूँ, मैंने अज्ञान में जो 'स्व' नहीं है, वैसे 'पर' के साथ अपनी भ्रांत पहचान स्थापित की है। मैंने अपने सीमित मन को क्षणभंगुर वस्तुओं के साथ पहचान बनाने की एवं उनको धारणाओं में परिवर्तित करने की अनुमति दी है। स्वयं को उनसे अनुबंधित करके, मैं बँध गया हूँ। अब मैं उस प्रकाश की ओर मुड़ता हूँ जो मन से परे है, इस भौतिक विश्व से विशाल है। मन की अष्टभुज जकड़ पर उस प्रकाश को डालकर, मैं उसकी पकड़ को ढीला करने का आह्वान कर सकता हूँ। मैं स्वयं को निर्भरता से मुक्त करके जीवन को स्पष्टता से देखना चाहता हूँ। मैं अपने अतुल्य स्व के सौंदर्य की अनुभूति करना चाहता हूँ। यह संसार यंत्रणा या पीड़ा नहीं है। पीड़ा मेरा अपना असमंजस है, मेरा परिग्रह है। संसार तटस्थ है। अब मैं उसका उपयोग करूँगा - अपने विकास की परीक्षण भूमि के लिए, अपने उत्कर्ष की प्रेरणा के लिए, संपूर्ण चराचर जगत् के समीप पहुँचने के लिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy