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जीवन का उत्कर्ष आपको उन वस्तुओं के बिना जीना पड़ता है। अगर आप किसी वस्तु के साथ अपनी पहचान बना लेते है, तो जब वह छिन जाती है, आप गहन पीड़ा का अनुभव करते हैं। उसके खोने में आप नुकसान का एहसास करते हैं, उसके नष्ट होने में आप नष्ट महसूस करते हैं, उसके क्षय में आप क्षय का एहसास करते हैं। प्रत्येक निर्भरता में आप दुःख को आमंत्रित करते हैं। . ध्यान दें कि जब आप किसी वस्तु के साथ अपनी पहचान बना लेते हैं, तब क्या होता है? आप उसे एक विचार में बदल देते हैं। अब आप उस नए विचार के कैदी बन जाते हैं। उसे किसी भी कीमत पर बनाए रखना चाहते हैं। सभी ऐसा ही करते हैं। लोग एक विचार के लिए जान ले लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उसके लिए जान दे देते हैं। देशभक्ति, सांप्रदायिकता, मतांधता - ये और कुछ नहीं, सिर्फ स्वयं को सजा देने के छलावरण हैं। इन विचारों को पकड़े रखकर हम स्वयं को सजा देते हैं। मगर हम संसार में स्वयं को सजा देने नहीं आए हैं। न ही हम नाराज़ होने के लिए या लोगों से अलग रहने के लिए आए हैं। नाराज़ रहकर हम स्वयं को सजा दे रहे हैं। इस प्रतिबोध का आशय है पीडारहित रहना, एक स्वस्थ मानसिकता में जीना।
चिंतन कीजिए, कितनी बातों से जुड़ जाते हैं आप - जाति, संस्कृति या धार्मिक परिवेश, वस्तुओं का संग्रह, ऐंद्रिक वस्तुएँ, रिश्तेदार एवं मित्र। देखिए कि इनको पकड़े रखने से आप स्वयं ही जाल में फँस जाते हैं। उनको अपना बनाने की कोशिश में आप उनके कैदी बन जाते हैं। स्वयं को सजा देना बंद कीजिए। उस पहचान को रोकिए, बँधनमुक्त बनिए - मुक्त! उन वस्तुओं के प्रति आसक्ति रखने से क्या लाभ जिनका क्षय होने वाला है? अंतत: वे वस्तुएँ हमें छोड़ देती हैं या हम उन्हें छोड़ देते हैं। जब ऐसा होता है, तब आंतरिक पीड़ा होती है। क्यों? क्योंकि उनके साथ पहचान बनाकर हम उन्हें अपने अवचेतन की गहराई में रख देते हैं, और जब वे प्रकृति के नियमानुसार चले जाते हैं, तब हमारा आसक्त मन उनकी कमी को महसूस करता है।
सभी प्रकार की स्वयातना से परे जाने के लिए अपने अतुल्य स्वरूप को जानिए। क्या आपका स्व है और क्या नहीं, इस अंतर का अनुभव
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