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________________ अतुल्य की खोज में कीजिए। अब देखिए कि जो आपका है, उसे आपसे दूर नहीं किया जा सकता, और जो आपका नहीं है, वह कभी प्राप्त नहीं हो सकता। इस अंतर्दृष्टि के साथ अपने रिश्तों पर ध्यान करें। उदाहरणत: आपने किसी विशेष व्यक्ति के साथ संबंध जोड़ा है। अगर आप उसे किसी दूसरी युवती के साथ बातचीत करते देखते हैं, तो आपको जलन होती है, दुःखप्रद एहसास होता है। क्यों? क्या चला गया है? कुछ भी तो नहीं गया है। मगर आपके मन ने उस व्यक्ति के साथ अपनी पहचान बना ली है, उसे 'मेरा' समझ लिया है, और चूँकि इस मन को 'मेरा' से आसक्ति है, तो उसे खोने का भय भी है। अगर आपने उस व्यक्ति से किसी रिश्ते का गठन नहीं किया है, तो किसी दूसरे के साथ उसे देखने में आपको कोई दुःख नहीं होगा। आपको ज़रा भी परवाह नहीं होगी। लेकिन जब मन शक्की हो जाता है, तब वह निरंतर इसी विचार में लगा रहता है। सोचता है, 'वह उससे क्यों मिलता है? उसका इरादा क्या है?' जब तक आपका मन इन शंकाओं से घिरा रहेगा, क्या आप दिव्यता पर चिंतन एवं ध्यान कर पाएँगे? और तो और, अगर आप स्वयं को इस जलन से मुक्त नहीं करेंगे, अगर यह तीन चार दिन तक कायम रहेगी, तो कब्ज़ पैदा हो जाएगी। खाने को सुगमता से पचाने के लिए संपूर्ण शरीर को आरामदायक ऊर्जा के प्रवाह की आवश्यकता है। जब आप तनावग्रस्त हैं, तब शरीर की कोशिकाएँ सिकुड़ जाती हैं। जहाँ सिकुड़न होती है, वहाँ पाचन क्रिया काम नहीं करती। कब्ज सूचित करता है कि अंदर हम क्लेश से जल रहे हैं। जलन की यह अग्नि हमारी पाचन क्रिया के सारे रसों को सोख लेती है। लोग यह नहीं सोचते कि ईर्ष्या करने में, दूसरों पर शंका करने में, 'तेरा' और 'मेरा' का भेद करने में वे कितनी ऊर्जा को नष्ट कर देते हैं। ईर्ष्या के लिए संस्कृत में अग्नि शब्द प्रयुक्त होता है, वह अंग्रेज़ी के 'एगोनी' और ग्रीक के 'इगोउ' शब्द का समानार्थक है। ईर्ष्या में दोनों हैं - अग्नि एवं जलन। वह जलाती है। जब आप पूरी तरह से अंदर से सिक जाते हैं, पक जाते हैं, तब रस समाप्त हो जाता है। यातना तब होती है जब लोग एक दूसरे के शरीर से आसक्त हो जाते हैं। जब अलगाव या तलाक .. होता है, तब देखिए क्या होता है? लोग बहुत कठिनाई से रिश्ता तोड़ते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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