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अतुल्य की खोज में
५५ मनुष्य स्वयं को पीड़ा दे रहा है। इस पीड़ा को दूर या कम करने के लिए वह शराब और नशीली दवाइयों जैसी बाहरी चीज़ों का आश्रय लेता है, या फिर वह भोग और विलास के पीछे भागता है। ये सभी इसी बात की पुष्टि करते हैं कि मनुष्य के अंदर दर्द समाया हुआ है।
अगर आप अंतर्दृष्टि को जागृत करेंगे, तो कम से कम स्वयं को पीड़ा नहीं पहुँचाएंगे। आपको उस कवायद में रहना नहीं पड़ेगा। उस जुलूस से न जुड़कर आप कम से कम ऐसी स्थिति में रहेंगे जहाँ आप दूसरों की मदद कर सकते हैं। अगर आप जुलूस के प्रवाह में बह गए, तो आपके पैर दूसरों के नगाड़े की धुन पर चलेंगे। आप स्वयं की गति के अनुसार नहीं चलेंगे।
पहले पीछे खड़े होकर उस कवायद को देखें। उसके संगीत एवं प्रयाण का हिस्सा नहीं बनें। इन भावनाओं के सहारे स्वयं को भीड़ से अलग करें। उनका उपयोग करके उस बनावटी संसार से बाहर निकलकर सत्य को उसकी वास्तविकता में देखें। यह पीड़ादायक हो सकता है। आप इस तरह देखने के आदी नहीं हैं। आपको कल्पना के संसार में जीने की आदत पड़ गई है। लेकिन पारदर्शिता के बगैर आप आगे कैसे बढ़ पाएँगे?
पिछला पहलू था एकत्व - उस अविनाशी शक्ति पर ध्यान, जो आप स्वयं हैं। जब तक उसके संपर्क में नहीं आएंगे, तब तक स्वयं को सभी प्रकार के भय से मुक्त नहीं कर पाएंगे। जब तक अपने एकाकीपन का अनुभव नहीं करेंगे, तब तक एकत्व का अनुभव नहीं कर पाएँगे।
आज पाँचवें पहलू पर चिंतन करने का दिन है - अन्यत्व-स्वत्व। अन्यत्व यानी जो सत्व से अलग है, आत्मा से अलग है स्वत्व अर्थात् स्वार्थ। स्वत्व आपको दो चीजें देखने में मदद करता है: १) अन्य, जहाँ पर आपने स्वयं की गलत पहचान बनाई है या स्वयं को मिश्रित किया है, और २)स्व, आपकी वास्तविक आत्मा। यह अलग करने की प्रक्रिया है। आप वह नहीं है जिसके साथ आपने अपनी पहचान बनाई है। आपका असली स्व किसी भी वस्तु के साथ पहचान नहीं बना सकता है। वह अद्वितीय है।
अपने आप से पूछिए, 'वे क्या वस्तुएँ हैं जिनसे मैंने अपनी पहचान बनाई है?' उनको जानने के लिए अपनी प्रतिक्रिया पर गौर कीजिए जब
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