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________________ ४८ जीवन का उत्कर्ष और दहाड़ो।' मगर छोटा सा सिंह न तो उसकी बातें समझ सका, न ही विश्वास कर सका। वह चरने के लिए जाने लगा। 'तुम क्या कर रहे हो, घास की पत्तियों को क्यों कुतर रहे हो?' विशालकाय सिंह ने पूछा। 'यह तुम्हारा भोजन नहीं है।' मगर सिंह-शावक भय से काँपने लगा। 'तुम क्यों काँप रहे हो?' उसने नन्हे शावक से पूछा। 'मैं तुम्हारे जैसा हूँ। तुम मेरे जैसे हो। तुम अपना स्वभाव भूल चुके हो।' यह मन इतना कमज़ोर है कि अगर उसने एक रूप अपना लिया है, तो वह अन्य दृष्टिकोण को सहजता से स्वीकार नहीं करता है। वह उसी चौखट में, उसी दिशा में रहता है। हमारा मन इसी तरह स्वयं को सीमित करता है। सिंह-शावक अपने सीमित दृष्टिकोण को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। मगर बड़ा सिंह भी उसे समझाने पर आतुर था। नहीं, समझने का प्रयत्न करो,' उसने शावक से कहा। 'तुम मेरे जैसे हो।' । उसने उसे तालाब के जल में देखने के लिए कहा। वह उसके पास खड़ा हुआ और कहने लगा, 'देखो, अपनी परछाईं देखो। मेरी परछाईं देखो। अपने पीले रंग को देखो, अपनी अयाल, अपनी पूँछ को। देखो कितनी घुघराली है। देखो, तुम्हारे पैने दाँत एकदम मेरे जैसे हैं। देखो तुम्हारा सिंह सा चेहरा।' और शावक देखने लगा और सोचने लगा। 'हाँ, मेरा चेहरा सिंह का बड़ा चेहरा है। यह सच है। न मैं ऊन से ढका हूँ, न ही मेरे सर पर सींग हैं। मगर यह जानवर दहाड़ता है और मैं 'बा,बा' कहता हूँ। यह बहुत गहरा फ़र्क है! 'आओ, नन्हें शेर, अपनी आवाज़ को निकालो! तुम्हारा हृदय बहुत विशाल है। मैं उसकी धड़कन सुन सकता हूँ, इसलिए अपनी दहाड़ बाहर निकालो।' नन्हे शावक ने जरा सी चेष्टा की। उसने अपना कंठ खोला मगर आदत की वजह से उसका स्वर यंत्र सिकुड़ गया था और वह दहाड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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