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________________ निर्भरता से मुक्ति ४९ नहीं सका। धीरे-धीरे उसने कोशिश की और अंत में उसकी सच्ची दहाड़ निकल पड़ी। ____ विशाल सिंह ने उससे कहा, 'अब अकेले चलो। झुंड में मत चलो। तुम्हें झुंड से सरोकार नहीं है। वे सब भेड़ और बकरियाँ है। तुम एक सिंह हो। तुम भेड़ और बकरियों के साथ कैसे जी सकते हो? अब वहाँ जाओ और ज़ोर से दहाड़ो!' शावक वहाँ वापस गया और इतनी ज़ोर से दहाड़ा कि सभी भागने लगे - भेड़, बकरियाँ, गड़ेरिया और बाक़ी सभी। उसने अपने स्वभाव को पहचान लिया। वह परिवर्तित हो चुका था। 'मैं अकेले खड़ा हो सकता हूँ। साथ ही, मैं लाचारी और भय के एहसास के बिना जी सकता हूँ।'...... इस तरह एकत्व की भावना परिवर्तन लाने वाली भावना है। यह एक नवीन आदर्श स्थापित करता है, आपके मन के लिए एक नवीन दृष्टि। धीरे-धीरे यह एक प्रतीक बन जाता है और आप स्वयं को एक नवीन आयाम के रूप में देखने लगते हैं। 'मैं' अकेले आता हूँ एवं अकेले जाता हूँ, मगर मैं अकेला नहीं हूँ। स्वयं में उस एकत्व को जानने के बाद, मैं हर व्यक्ति में उसे देखता हूँ। इसलिए सभी मेरे समान हैं और मैं सभी के समान।' ____ आपके मन में सभी के प्रति वैसा ही आदर भाव है जैसा स्वयं के प्रति है। आप न तो श्रेष्ठ हैं न तुच्छ। दोनों मापदंड चले गए हैं। आप सभी के साथ एक हैं। जब आप सबको समान समझेंगे, तो हर व्यक्ति आपके साथ सुखद महसूस करेगा। अगर आप किसी को छोटा समझेंगे, तो शायद उसे बुरा लगे या वह स्वयं को तुच्छ समझने लगे। अगर आप किसी को श्रेष्ठ मानेंगे, तो भी शायद उसे सही नहीं लगेगा। वह असमंजस में रहेगा कि आपके साथ कैसा व्यवहार करे। वह आपसे श्रेष्ठ नहीं है, मगर आपने उसे श्रेष्ठ बना दिया और अब वह अपनी कमियों को छुपाकर अपनी उस झूठी छवि के लिए जी रहा है जो आपने पैदा की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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