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________________ निर्भरता से मुक्ति इस तरह आगे बढ़ते हुए आप देखते हैं कि किस तरह आप अकेले आए थे। उस समय आपको कोई नहीं जानता था। आप एक अजनबी थे। आपके पास कोई पता नहीं, जान-पहचान नहीं और सिफ़ारिश पत्र भी नहीं था। आपके पास कुछ नहीं था। __हम सभी एक छोटे से वाहन में अकेले आए थे, एक लघु आकार में – एक बीज और अंडा। उस समय हमारे पास कोई साधन नहीं था। अब हमारे पास अनेकों साधन हैं जिनसे हम देखते हैं, भाव व्यक्त करते हैं, बोलते हैं और गमन करते हैं। मगर इस जीवन के आरंभ में हमने एक छोटे से शरीर में प्रवेश किया, जो हमारा वाहन था। बस, इतना ही! उस समय कौन था? आप किसके लिए रो रहे थे? अब आप इतनी चीज़ों के लिए आँसू बहाते हैं, पर तब आप सिर्फ एक चीज़ के लिए रो रहे थे - गहरी साँस लेने के लिए! वही आपकी प्रथम आवश्यकता थी। आप रोए, आपने साँस ली और आपके शरीर की समस्त प्रक्रियाएँ काम करने लगीं। तब आपका प्रथम एहसास क्या था? आपके दिल की धड़कन। इस विचार के साथ कार्यरत रहें, 'मैं' एक हूँ, 'मैं' एक जैसे आया हूँ। अब आप समझ जाएँगे कि अपने पैरों पर किस तरह खड़े रहना है। जब आप रोते हैं कि, 'मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता! मैं इस वस्तु या उस वस्तु के बिना जी नहीं सकता!', तब आँसू आपकी दृष्टि में रुकावट बन जाते हैं। ये सब मानसिक व्यसन हैं। आप उनके बिना जी रहे थे! आप अकेले आए थे! उस समय आपको सिर्फ साँस की ज़रूरत थी एवं शरीर के पोषण के लिए कुछ भोजन की। आप अब भी उनके बिना जी सकते हैं! इस चिंतन का उद्देश्य है व्यक्ति को सक्षम करना ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाए। इस तरह न ही वह किसी पर टिकेगा और न ही किसी पर बोझ बनेगा। बात आपको संसार से अलग करने की नहीं है, मगर एक स्वस्थ व्यक्ति बनाने की है। जब आप अपनी आंतरिक क्षमता को बढ़ाएँगे, आपका मन निरोग और बलवान बन जाएगा। तब आपको एहसास होगा कि आप अकेले रह सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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