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________________ जीवन का उत्कर्ष उसके दुश्मन। उसने तो उनको अपने जैसा ही समझ रखा था, अतः वह भौंकता ही रहा। अंत में थक कर गिर पड़ा। बेचारे कुत्ते को सारे प्रतिबिंब उस पर भौंकने और काटने वाले ही नज़र आ रहे थे। इस तरह उसने द्वैतभाव उत्पन्न किया। इस संसार को अपनी इच्छाओं की परछाई के रूप में देखिए। अपनी इच्छाओं को हटाइए और देखते रहिए। भौंकिए मत। जब आप स्वयं को एक द्रष्टा के रूप में देखेंगे, तब यह संसार आपकी अभिज्ञता में लीन हो जाएगा। यह एक प्रतिबोध है। इसे समझाना कठिन है, मगर इसकी अनुभूति करने से आप सभी के साथ समानता की अनुभूति करेंगे। फिर आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा कि आप किसी अमीर आदमी के साथ हैं या किसी गरीब के साथ, राजा के साथ या रंक के साथ। इससे आपके मन में कोई भिन्नता उत्पन्न नहीं होती है। क्यों नहीं? क्योंकि अब आपके पास एक नई समझ है। जो आप स्वयं में देखते हैं, वही दूसरे में है। उनका 'मैं' और आपका 'मैं' गुण में समान है - सिर्फ पवित्र आत्मा है। जब आप 'कम' और 'ज़्यादा' की नज़र से देखेंगे, तब आप एक साधारण आदमी को कम और ऊँची पदवी वाले मित्र को ज़्यादा समझेंगे। जब आप दूसरे को कर्ता नहीं मानकर वस्तु मात्र मानते हैं, तब जिसके पास ज़्यादा है, वह एक अमीर वस्तु माना जाएगा और जिसके पास कम है, वह एक गरीब वस्तु माना जाएगा। ऐसा रिश्ता जिसे हम अक्सर देखते हैं, एक वस्तुनिष्ठ रिश्ता है। यह तब तक ही टिकता है, जब तक कुछ वस्तुएँ रहती हैं। जब वे वस्तुएँ नहीं रहती, रिश्ता खत्म हो जाता है। क्यों? क्योंकि वह रिश्ता बाहरी वस्तुओं पर निर्भर करता है। इस चिंतन से एक नई तरह की विचार-धारा उत्पन्न होती है। स्वयं से शुरू करते हुए कहिए, 'एकत्व, मैं एक हूँ। मैं इस संसार में अकेला ही आया हूँ। इस संसार में एकाकी भ्रमण करते हुए मैंने किसी प्यारी माता के गर्भ में प्रवेश किया और वहीं बड़ा होता रहा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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