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निर्भरता से मुक्ति
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नहीं किया है। जब आप दूसरों को कर्ता समझने लगेंगे, तब आप 'मैं' को देखेंगे, उसको देखेंगे जो 'है'।
जब आप 'मैं हूँ' का अनुभव करते हैं, तब आप अपने चैतन्य में जी रहे हैं। यहाँ द्वैतभाव नहीं है।
जैसे ही आप कहते हैं, 'मैं चाहता हूँ,' इच्छा उमड़ने लगती है। इच्छा से उभरती है वस्तु । अब आप संसार से अलग हो रहे हैं। इन दो से, यानी 'मैं' और 'चाहता हूँ' से एक तीसरी चीज़ 'संसार' उभरने लगती है 'मैं संसार को चाहता हूँ।' तीन का यह संगम द्वैतभाव से उत्पन्न होता है। जब भी आप कर्ता से, अपने मध्य से, 'मैं' से अलग होते हैं, तब बाह्य संसार उत्पन्न होता है। जैसे ही आप अपने चैतन्य से निकलते हैं, वहाँ द्वैतभाव पैदा होता है और वही संसार है ।
एकत्व का अर्थ है अंततः अनुभूति करना कि 'मैं हूँ,' न कि 'मैं चाहता हूँ।' इसका अर्थ है द्वैतभाव की धारणा को भंग करके एक हो जाना, जो आप 'स्वयं' हैं, वह 'स्वयं' हो जाना। जब आप संपूर्ण संसार को 'स्वयं' में ले आते हैं, तब जीवन में एकत्व प्रकट होता है। वहाँ अन्यत्व की भावना नहीं रहती, सिर्फ एकत्व रहता है।
अगर आप इस सत्व को अपनी अभिज्ञता में रखेंगे, तब आप जो भी देखेंगे, उससे द्वैतभाव उत्पन्न नहीं होगा। आप किसी व्यक्ति या वस्तु को चाहत या जाँच की दृष्टि से नहीं देखते हैं। बस, आप इस तरह देखते हैं मानो दर्पण में देख रहे हैं। जिस व्यक्ति को आप वस्तु के रूप में देखते थे, वह तो अब कर्ता है, आपके समान। आप प्रतिबिंब को अपने समान देखते हैं - न कम, न ज्यादा। जो आप हैं, यह भावना उससे अलग नहीं है।
एक कलाकार था। उसने अपने कमरे में चारों ओर, यानी छत पर और दीवारों पर शीशे के टुकड़े सजाने का निश्चय किया ताकि कमरे की बत्ती हर तरफ प्रतिबिंबित हो। उसे बैठकर इन प्रतिबिंबित रोशनियों को देखना अच्छा लगता था। एक दिन अकस्मात उसका कुत्ता कमरे में घुस आया । अनेक शीशों में इतने सारे कुत्ते देखकर वह भौंकने लगा, बिना समझे कि जिन कुत्तों को वह देख रहा था, वे उसी के प्रतिबिंब थे, न कि
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