SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनित्य के भीतर है नित्य देखिए इस मन को! जब यह आसक्ति से बँधा हुआ नहीं है, तब दूसरों को कितने महान सत्य सिखा सकता है? जब आप किसी के चारों ओर धागा बुनते हैं, तब खुद उसमें उलझ जाते हैं। मन का भी यही हाल है। छोटी से छोटी वस्तु के टूटने, बदलने या जाने से आपके संयत भावों का संतुलन खो जाता है। क्यों? क्योंकि उस वस्तु पर आपने अपनी मोहर लगाकर उस पर 'यह मेरी है' का लेबल लगा दिया है। ___ जो वस्तुएँ आपसे जुड़ी हुई नहीं हैं, आप उनके इर्द-गिर्द धागा नहीं बुनते हैं। अगर आप दूसरों के लिए ज्ञानी बन सकते हैं, तो फिर अपने मन को आसक्ति और बंधन से दूर रहने की शिक्षा क्यों नहीं देते? जिस तरह आप दूसरों के शोक संताप में उनसे शांत रहने की अपेक्षा करते हैं, वैसी ही उम्मीद स्वयं से क्यों नहीं करते? स्वयं के लिए एक नियम और दूसरों के लिए अन्य नियम, इस तरह का भेदभाव क्यों? ___ अगर आपके दाँत में दर्द है, तो आपको लगता है मानो सिर में भूकंप हो रहा है। मगर जब वास्तव में भूकंप आता है, तो आप इतना ही कहकर छोड़ देते हैं, 'यह प्रकृति का नियम है।' तब आप पर असर क्यों नहीं होता? 'मैं' और 'मेरा' पर जोर देते-देते आप जीवन की समग्रता के साथ अपना संबंध खो बैठते हैं। आपने अपनी सारी शक्ति आवश्यकता, लालच और आसक्ति में लगा दी है। आपने जीवन की सारी महत्ता अपने चारों ओर बुने हुए जाल पर केंद्रित कर दी है। ___ अब इस जाल की वजह से आप उदास, शोकातुर और नाराज़ हैं। एक छोटे से शब्द, भाव या अपमान से आपका सारा दिन बिगड़ जाता है। फिर भी अपनी हृदयहीनता में आप दूसरों का अपमान करते हैं और भूल भी जाते हैं। क्यों? क्योंकि असीम के साथ आपका संबंध नहीं है। सब कुछ मन में स्वार्थ भाव से केंद्रित है एवं वह मन नित्य नहीं है। वह सतत परिवर्तनशील है। इसी बात की पुष्टि करते हुए गुरु शिष्य से कहते हैं, 'नित्य और अनित्य पर चिंतन करो। यह जानने का प्रयास करो कि नित्य क्या है और अनित्य क्या है? अनाज को घुन से अलग करो। अभी दोनों मिले हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy