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________________ ६ जीवन का उत्कर्ष बिछड़ जाते हैं, हमारा मन उसे उसके बिछोह को स्वीकार नहीं करता। आसक्त मन उस रिश्ते के सौंदर्य को नष्ट कर देता है। यह सत्य इतना कड़वा है कि लोग इसे दूसरों के लिए भले ही स्वीकार कर लें, मगर स्वयं के लिए नहीं कर पाते। जब मन आसक्त नहीं है, तब उस पर ध्यान दें। एक कारखाने में एक कर्मचारी को तार मिला कि उसकी माँ का स्वर्गवास हो गया। वह एक हफ्ते की छुट्टी लेकर अपने शहर जाना चाहता था ताकि रिश्तेदारों को सांत्वना दे सके तथा स्वयं सांत्वना प्राप्त कर सके। जब वह अपने मालिक के पास छुट्टी की इजाज़त के लिए गया, तो मालिक भोजन के लिए बाहर गए हुए थे। कर्मचारी ने मालिक की मेज़ पर तार रखा और वहाँ से चला गया। ___उन दिनों मालिक की माँ भी काफी बीमार थी। इसलिए जब वे अपनी मेज़ पर लौटे, तो उन्होंने तार पर संदेश देखा कि 'तुम्हारी माँ का स्वर्गवास हो गया है', मगर यह नहीं देखा कि तार किसके नाम पर था। वे तुरंत ही उदास हो गए और मेज़ पर सिर रखकर आँसू बहाने लगे। ___ जैसे ही कर्मचारी वापस लौटा, वह समझ गया कि उसके तार की वजह से गलतफहमी हो गई है। उसने तुरंत बात समझाने की कोशिश की, 'साहब, मैं आपके पास छुट्टी की इजाज़त लेने आया था क्योंकि मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया है।' मालिक ने पूछा, 'क्या तुम्हारी माँ भी चल बसी है?' ___'नहीं साहब,' उसने कहा, 'मैंने वह तार आपकी मेज़ पर रखा क्योंकि आप यहाँ नहीं थे। आपकी नहीं, मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया है।' 'ओह, मेरी माँ नहीं, तुम्हारी माँ?' मालिक ने चैन की साँस लेते हुए पूछा। 'हाँ साहब,' उसने कहा, 'मुझे अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए छुट्टी की इजाज़त दीजिए।' अब मालिक का पूरा रवैया बदल गया। वे उपदेश देकर समझाने लगे, 'तुम वहाँ जाकर अपना वक्त क्यों बरबाद करते हो? वह तो चली गई और उसी तरह इस संसार की सब चीजें देर सबेर हमें छोड़ देंगी। अपने आपको इतना दुःखी क्यों करते हो?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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