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________________ अनित्य के भीतर है नित्य इस तरह गुरु शिष्य को प्रतिबोध देते हैं, 'परिवर्तन के कारण ही हम अपरिवर्तनशील को महसूस करते हैं, एवं वही अपरिवर्तनशील सारे परिवर्तन का कारण है।' 'सर्वोत्तम' के शिखर तक पहुँचने के लिए हमें 'मध्यम' और 'उत्तम' के सोपानों से गुज़रना पड़ता है। वैसे ही, सारे रूप और आकार भी बेहतर बनने के लिए बदलते रहते हैं। अंततः हम इतने प्रबुद्ध हो जाते हैं कि अपने आंतरिक सत्य के आलोक का अनुभव कर सकते हैं, जो आत्मा का स्थायी मंगल है। जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, इस अभिज्ञता को विकसित कीजिए कि सूर्यास्त में सूर्योदय निहित है और सूर्योदय में सूर्यास्त छुपा हुआ है। लुप्त होना और प्रकट होना - दोनों ही जीवन की क्रीड़ाएँ हैं, दोनों ही अपरिवर्तनशील के प्रकटीकरण हैं। ध्यान के इस प्रथम सोपान के चिंतन को कहते हैं अनित्य । अनित्य अर्थात् क्षणभंगुर और परिवर्तनशील । नित्य अर्थात् श्चिरंतन, अपरिवर्तनशील। मन के लिए अनित्य भाव को समझना कष्टदायक है। क्यों? क्योंकि मन अस्थायी को स्वीकार करके सोचता है कि वही अंत तक टिकने वाला है। मन ने जिनका सृजन किया है - वस्तुएँ, पदार्थ, विचार, रिश्ते, पद उन सभी से बँध जाता है। इसीलिए समय आने पर वह उनका त्याग करने के लिए तैयार नहीं होता। ऐसा मन कहता है, 'यह मेरे साथ रहने वाला है। यह मेरा है ।' मगर प्रकृति की वृत्ति कहती है, 'न ही कुछ तेरा है और न ही मेरा ।' अगर वह आपका बन जाएगा, तो उसकी प्रकृति बदल जाएगी। बदलाव की उसकी क्षमता खत्म हो जाएगी । बहता पानी निर्मला, ठहरे सो गंदला होय। अगर बदलाव की क्षमता खत्म हो गई, तो जीवन की ताज़गी चली जाएगी, जीवन अवरुद्ध हो जाएगा। अगर हमेशा गर्मी का मौसम रहेगा, तो आप सर्दी की कामना करेंगे। अगर गर्मी बढ़ती जाएगी, तो आप सहन नहीं कर सकेंगे। उसी तरह जब सर्दी का मौसम बड़ी देर तक रहता है, तो आप गर्मी के सपने देखते हैं। बदलाव से सब कुछ नवीन और तरोताज़ा हो जाता है। हमें अपने मन को पुनः शिक्षित करना है । अन्यथा वह आसक्ति की ओर बढ़ेगा, जिससे दुःख उत्पन्न होगा। जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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