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________________ हमारी प्रकृति की वृत्ति १५५ क्या आपमें बुद्धि नहीं है? बिच्छू ने पहली बार आपको काटा है, फिर भी आप उसे दुबारा काटने का अवसर देना चाहते हैं?' संत मुस्कुराकर बोले, 'डूबते हुए भी बिच्छू अपनी डंक मारने की प्रकृति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है तो मैं अपनी करुणामय प्रकृति कैसे छोड़ सकता हूँ? मैं बिच्छू से निकृष्ट नहीं हो सकता। मैं मैं ही रहूँगा। यही मेरी प्रकृति है। हर वस्तु की अपनी प्रकृति होती है।' यह चिंतन आपको अपनी वास्तविकता के टापू पर पहुँचाता है, अपनी एकीकृत करने वाली शक्ति तक, अपनी आंतरिक कसौटी तक, अपनी प्रकृति की आंतरिक वृत्ति तक। इस संसार में जहाँ तरंगें निरंतर चलायमान हैं, यह आवश्यक नहीं है कि आप भी तरंगों के साथ निरंतर हिलते-डुलते रहें। यदि कोई स्थिर स्थान है, तो वह है धर्म का टापू। वह आप ही हैं। जब आप उस टापू पर रहेंगे, तब जान जाएँगे, 'चाहे जैसी बवंडर आए, मैं गिरूँगा नहीं। प्रलोभन की चाहे जितनी हवाएँ चलें, मैं स्थिर रहूँगा। बाकी सब अस्थायी है। सत्य यहाँ है।' इस अनुभव से आपमें किसी के प्रति कटुता या द्वेषभाव नहीं रहेगा। प्रशंसा और निंदा आपके जीवन से दूर चली जाएगी। आप इस संसार में कैसे रहते हैं और अपने जीवन में क्या लेते हैं, इसके प्रति जागरूक हो जाएँगे। आप अपना संतुलन बनाए रखेंगे। आपकी प्रकृति की प्रकृति क्या है? प्रेम, करुणा, सत्यनिष्ठा एवं अभिज्ञता। जीवन की देख-रेख करना, जीवन के साथ बाँटना, और ईश्वरत्व प्राप्त करने का उद्यम करना, जो आपकी आत्मा की सर्वोच्च स्थिति है। _आप जानते हैं कि इस धर्म, इस सत्य के सिवाय इस ब्रह्मांड की हर वस्तु आपके जीवन से चली जाएगी। यह आपका चिरस्थायी मित्र है। इसकी अनुभूति करके आप कभी अकेले नहीं होंगे। जो आता-जाता है, वह संसार है, निरंतर गतिशील। ___ जब आपको अकेलापन सताए और आपको लगे कि सब कुछ व्यर्थ और खाली है, तो सोचिए, 'मेरे अंदर है, मेरे अंदर कुछ है, मेरे अंदर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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