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________________ १५६ जीवन का उत्कर्ष वस्तुत्व है। वह धर्म है। वह आत्मचेतना को जगाने वाली चाबी है।' उसकी निरंतर अनुभूति करते रहिए ताकि आप अकेलेपन की अनुभूति कभी न करें। जब आपमें यह चेतना आ जाएगी, आप स्वयं अपने शिक्षक हो जाएँगे। बाहरी शिक्षक का काम यही है कि आपको याद दिलाए: 'चाहे आप बीहड़ वन में हों, शहर में हों, पर्वत की चोटी पर हों, गुफा में हों, आप कभी अकेले नहीं हैं। आप अपने शिक्षक के साथ हैं, अपने धर्म के साथ हैं, अपने सत्य के साथ हैं और अपने एकत्व के साथ हैं।' __ चिंतन के बिंदु मैं असत्य की लहरों द्वारा थपेड़े जाने से स्वयं को रोककर, अपने स्थिर टापू पर, अपने धर्म पर कदम रखकर खड़ा हो जाऊँ। अलगाव पीड़ा है। एकता शांति है। मैं अपनी उच्चतर सत्ता से अलग हो गया, इसीलिए मेरे अंतर्मन में पीड़ा है। जब मैं अपने उच्चतर स्वयं से जुड़ जाऊँगा, तब मुझे कुछ भी विचलित नहीं करेगा। मैं शांत हूँ। यह आंतरिक एकता मुझे पूर्ण करती है, मुझे पोषित करती है। __कोई भी मेरे जीवन को नियंत्रित नहीं कर रहा है। मैं अपने जीवन को स्वयं संचालित कर रहा हूँ। मुझे बस सशक्त बनने का निर्णय लेना है, कमज़ोर होने का नहीं। चाहे कोई मेरी बुराई करे या भलाई, यह महत्त्वहीन है। मैं आत्मा हूँ। मैं धर्म के इस टापू पर खड़ा हूँ, मैं स्थिर हूँ। बाकी सब क्षणिक है; सत्य यहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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