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________________ १४० जीवन का उत्कर्ष जाते हैं, क्योंकि आपकी ऊर्जा भविष्य पर खर्च हो जाती है। इस तरह जीवन का अनुभव, प्रेम का अनुभव आपके हाथों से निकल जाता है। जब आप इस सूक्ष्म बात को समझने लगते हैं, तो आप जान जाएँगे कि प्रेम का अतीत या भविष्य से कोई संबंध नहीं है। प्रेम सिर्फ 'रहना' है। उसका अर्थ है साहचर्य में रहना। आप किसी के भी साहचर्य में रह सकते हैं जो आपसे संप्रेषण करे और आपसे किसी तरह का भाव या तारतम्य बिठा ले। आप किसी पौधे, बच्चे, जानवर, नानी, गँवार या किसी मूर्ख से प्रेम कर सकते हैं। उससे कुछ भी हासिल नहीं करना है, सिर्फ क्षण में विद्यमान रहना' है, जीवन के साथ भिन्न-भिन्न आकारों में अनुभव एवं संप्रेषण करना है। इसी तरह आप अपनी आत्मा से शर्तरहित प्रेम की अनुभूति करते हैं। आप स्वयं के साथ तारतम्य में जुड़ जाते हैं। जब कोई व्यक्ति प्रेम में हो, वह स्वयं को रोकता नहीं है। वह अपनी संपूर्ण निधि निस्संकोच लुटा देता है। वह नहीं कहता, 'यदि मैं इसे रख लूँ, तो भविष्य में काम आएगी।' नहीं, वह कहता है, 'आज के दिन मुझे जीने दो।' आप इस अनुभव को प्रतिदिन निर्मित करते हैं और अपनी जीवन शैली में बदल देते हैं। इस तरह आप अपने दिन को भविष्य के विचारों और चिंताओं से भर नहीं लेते। अब आपका जीवन यहीं है, इसी क्षण में, प्रेम के साथ। नवदीक्षितों को बंधुओं के समान जीना सिखाया जाता है। संत जन साथ में रहते हैं, फिर भी अपनी वैयक्तिकता बनाए रखते हैं। ऐसा कहने से प्रतीत हो सकता है कि इसमें कोई योजना है, जिसके अनुसार सब कुछ हो रहा है। लेकिन वास्तव में वैयक्तिकता बिना किसी योजना के, बिना किसी इरादे के ही बनी रहती है। ऐसा कैसे संभव है? यह बहुत ही सूक्ष्म बात है; आप अपनी वैयक्तिकता इसलिए बनाए रख पाते हैं क्योंकि आपका ऐसा करने का कोई इरादा नहीं है। ___ यह बात समझने में कुछ कठिन है, क्योंकि सामान्यतः आपको सिखाया जाता है कि आपको योजना बनानी है, किसी के साथ अपनी पहचान बनानी है, किसी के साथ जुड़ना है। पर यहाँ आपके पास कोई बंधन नहीं है; आपके पास 'आप' स्वयं हैं! जब आप इसे समझ जाएँगे, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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