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________________ विरल अवसर १३९ तब भी वह अपने भीतर देख सकता है। अंतर्वासी उसकी अनुभूति करता है जिसे उसने किसी दूसरे काल में देखा है। जब आपको ऐसे ज्ञान की अनुभूति होगी, तब आप नहीं कहेंगे, 'मैं ज्ञान का मालिक हूँ।' आप कहेंगे, 'मैं ज्ञान हूँ। पहले मैं अज्ञान में डूबा हुआ था। अब मैं स्वयं को अनावृत कर रहा हूँ। मैं छुपा हुआ था। अब मैं बाहर आ रहा हूँ। मैं नकाब और पर्दे हटा रहा हूँ ताकि मेरी आत्मा का सत्य उजागर हो सके।' जब आप स्वयं में विश्वास करते हैं, तब अपनी आंतरिक संपत्तियों (संपदा) का अनुभव करने लगते हैं। इससे इतना गहरा आत्मविश्वास मिल जाता है कि आपको अंतर्दृष्टि प्राप्त होने लगती है, आपकी शंकाएँ दूर होने लगती हैं। बाहर से जो शंकाएँ आती हैं, वे बाहर ही रहती हैं; वे आपके आंतरिक संसार का हिस्सा नहीं बनती। बोधि रूपी अपनी आंतरिक निधि को उजागर करने से पूर्व हम मिथ्यात्व से घिरे रहते हैं। मिथ्यात्व के कारण हम एक वस्तु को कोई दूसरी वस्तु समझ जाते हैं। हमारी सबसे बड़ी भूल यह है: हम देह को आत्मा समझ लेते हैं और आत्मा को देह । इस असमंजस में पीड़ा है क्योंकि हम इन दोनों में अंतर नहीं कर पाते। जब शरीर को कुछ होता है, हम अपनी आत्मा को उसमें अंतर्भूत कर देते हैं। इससे हमारी मनोवृत्तियाँ, भय, अवसाद और प्रक्षेपण शुरू होने लगते हैं । मिथ्यात्व के कारण हम नहीं देख पाते कि आत्मा की आकांक्षा शरीर की इच्छाओं से बिलकुल भिन्न है। जब ये दोनों उलझ जाते हैं, तब हम प्रेम को कामुकता समझते हैं, और कामुकता को प्रेम । हम एक वस्तु चाहते हैं, मगर बदले में दूसरी वस्तु ले लेते हैं। इसलिए हमें अपने आप से पूछना चाहिए, 'आत्मा का साहचर्य पाने की मेरी आकांक्षा क्या है? शरीर की परितुष्टि की मेरी आकाँक्षा क्या है?" हमें प्रेम चाहिए। वह आत्मा का भोजन है; हम उसके बिना जी नहीं सकते। प्रेम योजना नहीं है, वह स्मरण नहीं है। वह इस वर्तमान क्षण में ही विद्यमान रहता है। प्रेम में जकड़ने की, पाने की या बाँधने की कोई इच्छा नहीं होती। किसी व्यक्ति या वस्तु को पकड़े रखने का अर्थ है अपने आपसे अलग होना। अपने आपसे अलग होकर, आप वर्तमान क्षण से अलग हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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