SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोक का स्वरूप १२९ वह अपनी पूरी ताकत लगाकर ऐसी कोशिश कर सकता है। यदि वह ऐसा करे, तो क्या होगा? वह दो टुकड़ों में चिर जाएगा। इसी तरह, आप भी अंदर से चिर जाएँगे। आप चिपके हैं वस्तुओं से, छायाओं से, क्षणभंगुर तत्त्वों से, जबकि जीवन आगे बढ़ रहा है। आप अपने आपको एक बक्से में बंद करके कह रहे हैं, 'नहीं, मैं चाहता हूँ कि यह बक्सा यहीं रहे। इसे हिलना नहीं चाहिए। मैं चाहता हूँ कि यह चिरस्थायी रहे। ' आप गलत बात पर ध्यान दे रहे हैं। आप अस्थायी को चिरस्थायी बनाने की कोशिश कर रहे हैं, आप समझ नहीं रहे हैं कि मात्र स्थायी ही चिरस्थायी हो सकता है। आपको भय है कि वह चला जाएगा। यदि आप इस भय से इन्कार भी करें, आप बदलाव को कैसे रोक सकते हैं? दुनिया में ऐसा कोई उपकरण नहीं है जो बदलाव को रोक सके। यही मुख्य बात है। आप जैसे ही आप किसी व्यक्ति या वस्तु को बदलने से रोकते हैं, उसकी प्रकृति को नष्ट कर देते हैं। आप उसके जीवन प्रवाह को अवरुद्ध कर देते हैं। और जब आपने उसकी प्रकृति को नष्ट कर दिया, तब वह आपको अच्छा भी नहीं लगता है। क्यों? क्योंकि वह अब प्राकृतिक नहीं रहा, वह स्वाभाविक नहीं रहा। भीतरी जीवन चला गया है, केवल आकार रह गया है जो मुरझाने लगा है। एक शव के समान वह सड़ रहा है और भयंकर दुर्गंध छोड़ रहा है। और जब आप किसी के जीवन- प्रवाह को बहने नहीं देते, सबसे पहले किसका जीवन- प्रवाह बहना बंद हो जाता है? स्वयं आपका। इसलिए आपको एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर उछलना बंद करना होगा। आपको ध्यान केंद्रित करना होगा। किस पर? अपने आंतरिक लोक को सीमित करने वाली संरचनाओं पर। अपने व्यसनों पर, उनके स्रोतों पर, परिवर्तन के भय पर। अपने आप से पूछें, 'मैं अपने भय को, अपनी चिंता को कैसे रोक सकता हूँ? मैं दूसरों से अपनी इच्छानुसार काम कराने की अपेक्षा रखना कैसे बंद कर सकता हूँ? मैं यह अपेक्षा रखना कैसे बंद कर सकता हूँ कि वादे पूरे किए जाएँ?” यदि आप सचमुच अभिज्ञ हैं, तो आप जानते हैं कि कोई भी आपको कुछ दे नहीं सकता । प्रत्येक क्षण परिवर्तन हो रहा है परिस्थितियों में, भावनाओं में, शरीर के रसायनों में। साधक को क्षण के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy