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________________ १२८ जीवन का उत्कर्ष इस तरह आपका आंतरिक संसार पूर्वाग्रह, माँग, प्रत्याशा और प्रेषण का जटिल जाल बन जाता है। ये और कुछ नहीं, जड़ीभूत कंपनों के संग्रह हैं जो विचारात्मक और भावनात्मक खंडों में बदल गए हैं। इनकी उपस्थिति से आपकी निर्मल, चेतन ऊर्जा का बहाव अवरुद्ध हो जाता है। यदि आप इस प्रक्रिया को बिना रोके अपने आपको आकर्षित या विकर्षित होने देते हैं, क्रिया या प्रतिक्रिया करने देते हैं, तो आपकी आत्मा पुद्गल के अनेक परतों में घिर जाएगी। ये बख्तरबंद के समान हैं, जो आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव से आपको दूर रखते हैं। जब आप अपने शुद्ध निराकार स्वभाव को जानकर पुद्गल के साथ अपनी पहचान बनाना बंद कर देते हैं, चाहे वह तादात्मय शारीरिक हो, मानसिक हो या भावनात्मक, तब आप पदगलों को आकर्षित करना बंद कर देते हैं। लेकिन यदि आप इधर से उधर बहते रहे, यदि आप अस्थिर रहे, तो आप अपनी आत्मा पर लदे पुद्गलों के बोझ को उतार नहीं सकेंगे, तथा आत्मा की स्थिर, कांतिमयी, स्फुरणहीन ज्योति बाहर नहीं आएगी। ___ जब हमें लोक के निर्माण का ज्ञान मिल जाता है, तब हमें अनुभूति मिलती है कि छह तत्त्वों में से मात्र एक ही चेतन है - वह है जीव। समय कुछ भी नहीं जानता। आकाश कुछ भी नहीं जानता। पुद्गल चेतना-शून्य है। गति और स्थिति के नियम कुछ नहीं जानते। ये सभी जड़ हैं। चेतना सिर्फ आत्मा का गुण है। हमारी आत्मा सब कुछ जानती है। जब हम यह जान जाते हैं, हम दुविधा में नहीं रहते। हम अपने आंतरिक संसार पर ध्यान केंद्रित करते हैं जहाँ जीवन की सभी गुत्थियों का समाधान है। सभी के अंदर एक आंतरिक लोक है। अपने लोक को देखकर पूछे, 'मैं किस पर निर्भर रहूँ? मैं सतत परिवर्तनशील पर कैसे निर्भर रहूँ? वस्तुओं से चिपके रहने की यह इच्छा क्या है? क्या यह अज्ञान नहीं है? क्या मैं बार-बार मानसिक दीवारों, मतों, अवधारणाओं और प्रत्याशाओं से टकरा नहीं रहा हूँ, जबकि मुझे अपने लोक में उन्मुक्त विचरण करना चाहिए? मैं उसे कैसे पकड़कर रखू जो गतिमान है?' कोई व्यक्ति रेलगाड़ी के पीछे खड़ा होकर अपने पैरों को ज़मीन के साथ बाँधकर दोनों हाथों से रेलगाड़ी को रोकने की कोशिश कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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