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जीवन का उत्कर्ष
प्रति ग्रहणशील होना है और अपने आपसे कहना है, 'यही वह क्षण है!' अपने आपको क्षण के प्रति समर्पित कर दें, ताकि जब परिस्थितियाँ बदले
और कोई अपना वादा नहीं निभाए, तो आप क्षण के सत्व को अपने पास रख सकें, न कि उसके ग्रहण किए गए रूप को। किस वादे पर निर्भर होना दुःख को न्योता देना है, क्योंकि यदि वह अच्छे इरादे से दिया भी गया हो, वह समय के परिवर्तन के साथ अपनी जीवंतता खो देता है।
इसलिए क्षण को छोड़ दीजिए और उसके सत्व का स्मरण कीजिए। अनुभूति कीजिए, 'किसी चीज़ या व्यक्ति से चिपके रहने की प्रवृत्ति मेरा अज्ञान है।' अपने मन के अज्ञान को स्वीकार करना आसान नहीं है। यदि कोई कहे कि आपको कुछ नहीं आता है, तो आपको गुस्सा ज़रूर आएगा। 'आप क्या समझते हैं, मैं मूर्ख हूँ?' आप झल्ला पड़ते हैं। आप सच्चाई सुनना नहीं चाहते।
व्यसन आपको क्रोधित, कटु, परेशान और नाराज़ बना देते हैं। होता यह है कि आप जिस व्यक्ति के साथ चिपके हुए रहते हैं, उसे अपने से दूर कर देते हैं। जब वह चला जाता है, तो आप कटु हो जाते हैं। कटुता क्यों ढोएँ? क्यों रूठे? कुछ लोग कहते हैं कि क्रोध को व्यक्त करके उसका खुलासा करो। मगर, मैं कहता हूँ, उसका वमन कर दो; फेंक दो! जिस व्यक्ति के लिए आप तड़प रहे हैं, वह तो चला गया; उसे अपने मन में रखने का क्या मतलब है?
यह सब भीतरी समझ से ही किया जा सकता है। अपने आपसे कहें, 'मैं इस अप्रिय भाव के साथ चिपके नहीं रहना चाहता; यह मेरे पूरे दिन को बरबाद कर देगा, और मैं जानता हूँ कि यह दिन दुबारा आने वाला नहीं है।' हमारे जीवन का जो भी अमूल्य दिन बीत जाता है, उसे किसी भी प्रकार से वापस नहीं लाया जा सकता। दुनियां में ऐसी कोई मुद्रा नहीं है जिससे आप बीते दिन को खरीद सकते हैं। इसलिए यदि आप दिन खरीद नहीं सकते, तो उसे बिगाड़े क्यों? यह प्रमुख अभिज्ञता हमारे संपूर्ण अंत:करण में व्याप्त हो जानी चाहिए। यह अंदर पैठ जानी चाहिए।
___ तब क्रोध की अग्नि में आप अपने दिन को व्यर्थ नहीं जाने देंगे। आप चाहे कितने भी नाराज़ हों, चलती गाड़ी से अपने दस हज़ार रुपये की
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