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________________ जीवन का उत्कर्ष चिंतन के बिंदु मुझे अपनी चेतना को एक स्वच्छ, निर्मल एवं झिलमिलाते जलाशय के रूप में देखना है। जब मैं पीछे हटकर खड़ा होता हूँ, तो मैं नकारात्मक कंपनों के अंतःप्रवाह को देख सकता हूँ। मुझे उनके साथ अपनी पहचान बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जो बाहर से आया है, वह बाहर जा सकता है। वह मेरी चेतना का अभिन्न अंग नहीं है। मेरी असली प्रकृति आनंद है। जब मैं आनंदावस्था में रहता हूँ, तब मैं संतुलन में हूँ। अनासक्ति का अर्थ लोगों से दूर भागना नहीं है; उसका अर्थ है स्वयं के पास लौट आना। मुझे अपने साथ रहने दो; तभी मैं जानूँगा कि दूसरों के साथ कैसे रहना चाहिए। जो विश्वास दूसरों के शब्द, वादे या भविष्यवाणी सुनकर आता है, वह अधिक दिन नहीं टिकेगा, क्योंकि वह उधार की वस्तु है। जो विश्वास अंदरूनी अनुभवों से आता है, वह टिकाऊ है। दुनिया को दुःखों की घाटी न बनाकर उसे मैं आनंद का उपवन बना सकता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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