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अष्टम - संवर भावना
विराम चिह्न की कला बंधुओं, आप साधक हैं, जिज्ञासु हैं और इसलिए पर्वतारोहियों के समान हैं। आप चढ़ते हैं अपनी चेतना के शिखर तक पहुँचने के लिए। चढ़ाई चाहे पहाड़ की हो या स्वयं की, शिखर तक पहुँचने के लिए आपको एक सोपान से दूसरे सोपान की तरफ़ बढ़ना है, एक-एक कदम आगे बढ़ना है। जितने ऊँचे आप चढ़ते जाएँगे, उतना ही आपको सावधान रहना होगा। ऊपर तेज़ हवाएं चलती हैं। यदि आप संतुलित न रहे, तो वे आपको नीचे धकेल देंगी। जब हम महापुरुषों के जीवन का अवलोकन करते हैं, तो उनकी उपलब्धियों को देखकर अभिभूत हो जाते हैं, पर शायद हम इससे बेखबर हैं कि इन ऊँचाइयों तक पहुँचने के लिए उन्हें कितनी अभिज्ञता और संतुलन की आवश्यकता थी। उनका ध्यान हटाने के लिए चारों ओर प्रलोभन थे, लुभावनी चीजें थीं। और कभी-कभी नीचे की गहरी घाटी में गिर जाने का डर भी उन्हें सताता था। इन सब संभावित बाधाओं के बावजूद वे आगे बढ़ते गए, क्योंकि उनका ध्येय चोटी तक पहुँचना था।
उन्होंने हमेशा अपने लक्ष्य को अपनी भीतरी आँखों के सामने रखा। उन्हें सतर्क, सावधान, जागरूक और संतुलित रहना पड़ा। वे शिखर तक क्यों पहुँचना चाहते थे? क्योंकि वहाँ की ताज़ी हवा, मनोहारी दृश्यावलि, नीचे की पृथ्वी और ऊपर के आकाश के सौंदर्य को निहार पाने का आनंद अपने आप में एक अनूठा अनुभव है।
ज़मीन पर खड़ा व्यक्ति इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि जो व्यक्ति एवरेस्ट की चढ़ाई कर रहा है, उसे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वहाँ चाहिए पल-पल की सतर्कता। जैसे ही आप चढ़ने लगते हैं, आपको एहसास होता है कि चढ़ाई बहुत अधिक है, शिखर बहुत ऊँचा है। लेकिन यदि आपके अंदर हौसला है, आत्मविश्वास है, तो आपको डर नहीं लगेगा। आप अपने आप से कहेंगे, 'मैं चढ़ लूँगा।'
और आप चढ़ ही जाएँगे, क्योंकि आपके अतिरिक्त ऐसा कोई एजेंट नहीं है जो आपके जीवन की बातें तय करता है, आपको गरीब या अमीर
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