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है ओर वह बाह्यार्थ के होने पर ही होता है, अन्यथा नहीं । गकार, औकार और विसर्ग से बने गौ शब्द के उच्चारण से गाय का बोध होता है ऐसा उपवर्ष का कथन है। जो बोलने वाला है उसके वचन से प्रेरित होकर श्रोता उनके अर्थ के संयोग और विभाग से अपने विषय का ज्ञान कर लेता है। शब्द अर्थ को अभिव्यक्त करने वाले हैं, अर्थात् उनके वाचक हैं। शब्द और अर्थ का संबंध नित्य है। मीमांसक दर्शन में शब्द से भिन्न पद की और पद से भिन्न वाक्य की स्थिति नहीं है। शब्द में पद और पद में उपचार से वाक्य समाहित हैं । इति मीमांसा दर्शन
चार्वाक दर्शन
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बृहस्पति के मत के अनुसार चार्वाक दर्शन में प्रमाण और प्रमेय के स्वरूप को जानने के लिए कहा गया है. प्रमेय को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि, पृथ्वी, अप, तेज और वायु ये तत्त्व हैं । शरीर, इन्द्रियाँ आदि उसके अन्तर्गत ही माने गये हैं । जिस प्रकार शरीर भूतों का समुदाय है, उसी प्रकार इन्द्रियां और उनके विषय भी भूतों के समूह रूप हैं। ये चार तत्व ही जगत का मूल उपादान हैं। ज्ञान इसके अन्तर्गत नहीं है। उसको चैतन्य कहा गया है, किन्तु वह शरीर का ही गुण है, जैसे गुड़ के सड़ जाने पर उसमें मादकता आ जाती है, उसी प्रकार शरीर का निर्माण होने पर चेतना उत्पन्न हो जाती है । निश्चय ही आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है, अर्थात् देह ही आत्मा है। जीव पानी के बुलबुले के समान है। चैतन्य शरीर का ही विशिष्ट गुण है । चार्वाक दर्शन के अन्तर्गत पुरूषार्थ क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया है काम ही (एकमात्र) पुरूषार्थ है । मोक्ष आदि पुरूषार्थ अन्य (वस्तुतः) पुरूषार्थ नहीं है। अन्य सभी पुरूषार्थ व्यक्ति ने बुद्धि के आधार पर कल्पित कर लिये हैं। परलोक, मोक्ष आदि अदृष्ट कल्पना हैं। इस प्रकार इस दर्शन में पृथ्वी आदि चार ही तत्त्व स्वीकार किये गये है।
अब प्रमाण के बारे में कहते हैं प्रमाण का सामान्य लक्षण है जो नहीं जाना गया है, उसको जानना ही प्रमाण है । इन्द्रियों के सन्निकर्ष से वस्तु के यथार्थ स्वरूप का विशिष्ट ज्ञान ही प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष का यही लक्षण है। इस मत के अनुसार प्रत्यक्ष ही एक मात्र प्रमाण है । पुनः यह कहा गया है कि असन्निहित अर्थ का बोध ही अनुमान है, किंतु यह अन्य मत के आधार पर माना गया है । स्वमत में
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